मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

अगले बरस फ़िर आना गणपति - २

जब मैं सिगडी को गौर से देखता , तो मुझे लगता कि सिगडी पानी की बाल्टी से बनती है | नीचे के हिस्से को काट कर एक बड़ा सा छेद बनाओ , बीच के हिस्से में लोहे की कुछ सरिया घुसाओ और अन्दर के हिस्से में मिट्टी की एक परत लगा दो - बन गयी सिगडी |

"माँ सिगडी क्या बाल्टी से बनती है ?"

लोहे की सरिया के ऊपर माँ ने पहले लकडी के कोयले की एक परत लगाई | फिर बी एस पी से को-ओपेराटिव में मिलने वाले कोक कोयले से बाकी हिस्सा भर दिया | कोक कोयला भूल गए आप ?

भिलाई इस्पात संयंत्र में इस्तेमाल हुआ कोयला, जो कि आकार में काफी छोटा हो जाता था और फिर किसी और प्रक्रिया के काबिल नहीं रहता था - को ओपेराटिव के जरिये बंटवा दिया जाता था , ताकि भिलाई वासी उससे अपना खाना बना सकें | वही तो था कोक कोयला ! सो लकडी कोयले के ऊपर कोक कोयले की परत, पहले छोटे कोयले के टुकड़े , फिर बड़े कोयले के टुकड़े | फिर माँ नीचे की सुराख़ में रद्दी काग़ज़  भर देती | रद्दी काग़ज़ , जो ज्यादातर स्कूल जाने वाले बच्चों, बबलू , बेबी  या कौशल, शशि के पुराने साल के स्कूल की कॉपी ,घर का किराना सामान खरीदने पर मिले कागज के थैले या टुकड़े , या तो फिर किसी सिनेमा या सर्कस के फार्म, जो मैं विज्ञापन करने वाले टेंपो के पीछे दौड़कर बटोरता था | रद्दी कागज के साथ साथ सूखे पत्ते , पतली पतली लकडी की डालियाँ और टुकड़े, जो कि घर के घेरे (बाड़ी - सच तो यह है कि 'बाड़ी' लोगों ने छोटे के परिवार के आने के बाद उनसे सीख कर इस्तेमाल करना शुरू किया था वर्ना सब 'घेरा' ही कहते थे | ) में बहुतायत मिल जाते थे - क्योंकि घर में पेड़ पौधों की कमी तो थी नहीं  |

आने वाले वर्षों में परतें वही रही पर तकनीक थोडी रचनात्मक हो गयी | लकडी के कोयले की खपत कम करने के लिए माँ ने 'गोबर लड्डू' का प्रयोग शुरू किया जो इतना सफल रहा कि देखा देखी अडोस पड़ोस के कई लोगों ने वह तकनीक अपना ली | यह माँ का अपना आविष्कार था | प्रायः एक दो बार इस्तेमाल के बाद एस पी के कोक चूरे चूरे हो जाते थे और किसी काम के नहीं रहते थे | इतना ही नहीं, थोड़े दिनों बाद लोगों को शिकायत होने लगी कि को ओपेराटिव से मिलने वाले कोक का आकार लघु से लघुतर होते जा रहा है | माँ कोक के चूरे को गाय के गोबर में मिलाकर लड्डू बनाकर सुखा लेती थी |

दूसरे, जब लोगों को बी एस पी के कोक से शिकायत होने लगी और हमें तो कोक मिलना ही बंद हो गया  |  हमें सोगा के मामा की फेक्टरी का पता चला जो केम्प में कहीं थी | वे लोग बी एस पी से मिलने वाले कोक को ब्लेक में खरीद लेते थे और उसे पिघलाकर और कुछ रसायन मिलाकर बेलनाकार सांचे में ढाल देते थे | क्या अच्छी शकल थी उनकी ! बी एस पी का कोयला बे-आकार , बेढंगा , छोटा या बड़ा होता था | वे बेलनाकार कोयले, एक ही सांचे के ढले एक ही आकार के, सुडौल होते | अगर फर्श पर  लुढ़का दो तो दूर तक लुढ़कते चले जाते थे | इतना ही नहीं, उनसे कम धुआं निकलता और वे बड़ी आसानी से आग पकड़ लेते | माँ को उतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती |

माँ ने "डब्बी" (माचिस) से तीली निकाली और सिगडी के कागज़ में में आग लगा दी | धुआं निकलने लगा माँ ने एक पुठ्ठे से ऊपर से धौंकना शुरू किया दूसरा पुट्ठा पकड़ कर मैं धौंकने  लगा | बारिश के दिन थे | लकडियाँ थोडी गीली थी |धुआं ज्यादा निकल रहा था |

"माँ , सिगडी क्या बाल्टी से बनती है ?"

"हाँ "

देखा, मैंने कहा था न - कितना आसान था ये अनुमान लगाना |

जो आसान नहीं था , वो मैंने पूछ डाला ," माँ, मुझे गणेश जी की आरती सिखाओ ना | "

"अरे, अभी मुझे नहाने जाने दे | तुम्हारे बाबूजी के लिए नाश्ता बनाना है |"

"अभी सिखाओ न |"

"भगवान् की आरती कोई बिना नहाए सिखाता है ? मुझे नहाने जाने दो | तब तक तू सिगडी देखते रह और अगर बुझने लगे तो हवा करते रह |"

माँ नहाने चली गयी | सिगडी का धुआ ख़त्म हुआ और कोयलों ने आग पकड़ ली | "चट चट" की आवाज आने लगी |जब तक माँ नहा कर आती , उपरी परत के कोयले भी लाल होने लगे थे | माँ ने जल्दी से थोड़े और कोयले डाले और सिगडी उठा कर अन्दर ले जाने लगी |

"माँ , मुझे आरती सिखाओ न |"

अभी तेरे बाबूजी के लिए जल्दी नाश्ता बनाना है ..."

अचानक चट की आवाज के साथ एक कोक का टुकडा हवा में उछला और मेरे बगल से निकल गया | बाल बाल बचे |

"अरे, लगी तो नहीं तुझे ?"

"नहीं माँ |"

"लगी हो तो बता बेटा | बरनाल लगा देती हूँ | "

माँ की सारी सहानुभूति रसोई घर मैं घुसते ही बदल गयी |

माँ के पीछे पीछे मैं भी रंधनीखंड़ में घुस गया |

"हाँ हाँ, वहीँ रह | "

हे भगवान्, मैं बिना नहाये अन्दर घुसने की धृष्टता कर रहा था |मैं दहलीज पर ठिठक गया |
"भगवान् की आरती सीखना है तो जा जल्दी नहा कर आ | बिना नहाये कोई आरती सीखता है ?"

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माँ नाश्ता बना चुकी | बाबूजी नाश्ता खा कर कॉलेज जा चुके और मैं नहा चुका |

अब मैं रसोई घर मैं घुस सकता था |

सब की माँओं को मैंने चाकू से सब्जी काटते देखा था | उस समय तक हमारे घर मैं चाकू नहीं था | एक हँसिया था जो प्रायः किसी काम का नहीं था | माँ फरसुल से ही सारी सब्जी काट लेती थी -आलू से लेकर कभी कभार मछली तक | यहाँ तक कि अचार डालने के समय आम भी | पर इसी गर्मियों मैं रामलाल सुपेला बाजार से एक आम काटने का सरौता खरीदकर लाये थे जो कि, गर्मियों में अचार के दिनों में ही एक नेता की  तरह दर्शन देता था | बाकी दिनों स्टोर रूम के किसी कोने में सोया रहता था |आम आदमी की तरह पिसने वाला तो बेचारा फरसुल था जो कटहल और गन्ना तो क्या कभी कभी रस्सी भी काटता था | काटने का एक और राजसी औजार सरौता था जो बैठक में सौंफ की  ट्रे पर पड़े रहता था और सिर्फ राजसी काम, यानी कि सुपारी काटने का  काम करता था |

इस समय माँ अपने काले रंग के पीढे पर बैठी फरसुल से आलू काट रही थी | मोटी लकडी का बना वह पीढा माँ का ही आसन था | रसोई घर में माँ के कई साल , बल्कि दशक इसी पीढे पर बैठकर गुजर गए | माँ पीढे में बैठे या तो कुछ करते रहती या गंज या बटलोही में सब्जी , भात या दाल उबलते देखते रहती और ना जाने क्या सोचते रहती |

"माँ आरती ?"

" हाँ बोल जय गणेश , जय गणेश जय गणेश देवा |"

"जय गणेश , जय गणेश जय गणेश देवा ..."

"माता जाकी पार्वती पिता महादेवा "

"अच्छा ", मैंने सोचा ,"पार्वती गणेश जी की माँ थी | " माँ का नाम भी तो पार्वती था |

"लाडूअन के भोग लगे संत करे सेवा ..."

मेरी आँखों के सामने मार्केट का गणेश और उसके मुहूर्त के समय पंडित जी की लड़ाई का दृश्य घूम गाया |

यहाँ तक तो आसान था , पर आगे की  पंक्तियाँ थोडी मुश्किल थी ...

"एक दंत दाया दंत चार भुजाधारी ...

मैं जोश से चिल्लाया , "एक दंत दाया दंत ....", फिर अटक गया," माँ , दंत क्या होता है ?"

"दंत याने दांत ..."

"चार भुजा ..." माँ स्टोर रूम से से खल बट्टा ले आई और गरम मसाला कूटने लगी |

"माँ , भुजा याने क्या ?"

मसाला कूटते कूटते माँ को भी छींकें आने लगी और मुझे भी |माँ भन्ना कर बोली,"बाहर जाकर खेल तो | आज के लिए इतना काफी है |बाकी कल ||"

जाते जाते माँ बोली," भुजा याने हाथ गणेश जी के चार हाथ हैं न ?"

उस दिन जब शाम को आरती हुई तो पहले चार लाइनों में मेरी आवाज सबसे ऊँची थी |

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"ताश के बावन पत्ते , पंजे छक्के सत्ते, सब के सब हरजाई , मैं लुट गया राम दुहाई ..."

ना तो मुझे ये मालूम था कि परदे पर गाने वाला पात्र असीत सेन है और ना ही मुझे कोई दिलचस्पी थी | बोरे में बैठकर मैं ऊँघ रहा था और सामने हिलते परदे पर जो आ रहा था, देख रहा था | पीछे सिनेमा का प्रोजेक्टर 'किर्र - किर्र ' की  आवाज करते घूम रहा था |

"तुझे नींद आ रही है ?" बेबी ने पूछा |

"हाँ", मैंने कहा, "घर कब चलेंगे ?"

मुश्किल ये थी कि हम बीच मैं बैठे थे | हमारे आसपास ढेर सारे लोग बोरा बिछाकर दो दो या चार चार के ग्रुप में , या सपरिवार बैठे थे या यूँ कहें कि पसरे हुए थे और उठने के मूड में नहीं थे |

"पिक्चर इतनी बेकार तो नहीं है " बेबी ने कहा |

"हाँ रे", जवाब दिया उसकी पक्की सहेली इंदु ने ,"कम से कम इस बार ईस्टमेन कलर दिखा रहे हैं |"
वह आगे कुछ कहती , इससे पहले पीछे से लोगों ने "श ... श ॥ " की आवाज लगाईं | हमें अहसास दिलाया की हम भारी भीड़ में धंसे हैं और लोगों की तन्मयता में बाधा पड रही है | को  ऑपरेटिव  के सामने  का वह मैदान , जहाँ कोयला  बंटता था, इतना भर गया था कि एक कोने में गुपचुप, मूंगफली और कुल्फी वाले भी  गैस बत्ती जलाकर ठेला लेकर  खड़े थे | 

कोई न कोई फिल्म दिखाना गणेश पूजा का अभिन्न अंग था आयोजकों ने पिछले साल प्रदर्शित हुई फिल्म "तमन्ना " को चुना था | 

"कब जायेंगे ?" मैंने फुसफुसाकर पूछा |

"बस ये रील ख़तम होने दो " बेबी ने धीमी आवाज में जवाब दिया | मेरा  सब्र छलका जा रहा था | इसे रील ख़तम होने का इंतज़ार क्यों है ?

जवाब जल्दी ही मिल गया | एक बच्चा नींद से जागकर रो पड़ा | उसकी माँ उसे चुप कराने लगी |

पहले तो भीड़ ने छोटी "हो", "हो" की आवाज की  | पर जब वह महिला बच्चे को लेकर उठी और उसके सर की परछाई परदे पर पड़ी तो वह छोटी "हो, हो" बड़ी "हो, हो" में बदल गयी | पीछे से किसी शरारती ने सीटी भी बजाई | प्रोजेक्टर बंद भी नहीं हो सकता था | जब तक महिला का सर एक अवांछित पात्र की तरह परदे की छवि का अंग बना रहा , "हो, हो" की आवाज पृष्ठभूमि का संगीत देते रही |

राम राम करके रील ख़तम हुई | प्रोजेक्टर एक ही था | जब तक नयी रील लोड होती , इतना तो समय था कि लोग सिगरेट वगैरह पीने या पांव की झुनझुनी ठीक करने उठ कर बाहर जा सकते | हमने भी अपना बोरिया (बिस्तर नहीं ) उठाया और बाहर आ गए |

"पिक्चर उतनी बोर तो नहीं थी| " जाहिर था, इंदु का आने मन नहीं था |

"तुझे देखना है तो देख रे | " बेबी बोली |

"नहीं घर चलते हैं |" वह फिर बोली ,"अब राजेश खन्ना कि पिक्चर तो दिखा नहीं सकते |"

"शायद अगले साल दिखायेंगे | इस साल तो ज्यादा चंदा हुआ नहीं ""फिर भी कम से कम कलर पिक्चर तो थी |" इंदु इस बात से खुश थी ,"कल मेरा फेंसी ड्रेस है तू आएगी देखने ?"

"हाँ रे " बेबी बोली |

उसे तो आना ही था , वरना मुझे लेकर कौन जाता ?

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अगर ड्रेस-रिहर्सल के शब्द जुदा कर दिए जाएँ तो मुझे यही कहना है कि मुझे रिहर्सल पांच बार कराई गयी और मेरी पोशाक ऐन प्रस्थान के पूर्व तीन बार बदली गयी | रिहर्सल की जिम्मेदारी शशि ने अपने ऊपर ली | मुझे "ठक-ठक " हथौडे से पीटने की और फिर थाली से कौर मुंह में ले जाने का कई बार अभ्यास कराया गया | पर हर बार मैं कुछ ना कुछ भूल जाता था - शब्द नहीं, हरकत !

"मुझसे नहीं हो सकता |" मैं निराश हो गया|

"एक बार, सिर्फ एक बार और कोशिश करते हैं |" शशि दीदी ने हिम्मत छोड़ी नहीं थी |

"जाने दो उसे जैसे बोलना है बोलने दो |" कौशल भैया अपने आँगन की कुटिया से चिल्लाये |

"चलो जान छूटी  | " मैंने मन ही मन राहत की सांस ली |

तो यह था रिहर्सल का हिस्सा | अब ड्रेस पर आते हैं | यूँ तो बाबूजी ने कुछ ही दिन पहले मेरे लिए सिविक सेंटर से एक "टेरीकाट" की रेडीमेड ड्रेस ली थी, पर धुलाई के वक्त माँ का ऐसा हाथ पडा कि पहली धुलाई में ही वह सिकुड़ गई  | एकाध बार मै पहनकर खेलने भी गया - पर छोटी ने "चुस्त पेंट " कहकर चिढाया और फिर मैंने पहनना ही बंद कर दिया |

"इसके तो सारे कपडे छोटे हो गए हैं |" माँ ने अपनी टीने की पेटी खोली, जिसमें वो अपने और बच्चों के अच्छे कपडे रखती थी , जो हम सिर्फ त्योहारों में या किसी उत्सव में पहनते थे |बबलू की आँख बचाकर शशि ने उसका एक पेंट मुझे पहना कर देखा पर वह इतना ढीला था कि बेल्ट का आखिरी छेद भी उसे मेरी कमर में रोक पाने में नाकामयाब था |

कपडे की  समस्या किसी तरह सुलझी | मैं बेबी का हाथ थामे घर से निकल ही रहा था कि श्यामलाल मामा ने छींक दिया |

"ये तो पूरा सरदार दीख रहा है | " वे हँस कर बोले |

मेरा झालर नहीं उतरा था | माँ चाहती थी कि और बच्चों की तरह मेरा झालर भी राजिम में उतारा जाए | पर किसी कारणवश, बाबूजी काफी व्यस्त थे  | फल यह हुआ कि मेरे बाल इतने बड़े बड़े हो गए थे सरदारों की तरह मुझे जूडा बनाना पड़ता था | तिस पर मेरे दाहिने हाथ में एक कडा था (कड़े की कहानी "अक्षर ज्ञान" में )|

फल यह हुआ कि अगले ही पल मेरे सर पर हरे रंग का, चटाई का बना एक फेल्ट हेट था, जिसे मुन्ना "जानी मेरा नाम" की टोपी कहता था |

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तो स्टेज के पीछे मैं ऊँघ रहा था | मैं अकेला ही नहीं, जितने छोटे बच्चे स्टेज के पीछे अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे , सभी झपकी ले रहे थे | समय नौ से दस, दस से ग्यारह हो चला था | आखिर तभी मुझे किसी ने झकझोरा, और मैं हडबडा कर उठा | सिन्धी आटा चक्की वाला मेरी बांह को कंधे के पास से पकड़कर लगभग धकेलते हुए स्टेज के पास ले गया | फिर उसने माइक का पेंच ढीला करके उसकी ऊंचाई मेरे हिसाब से ठीक की |

"ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा ...." मैंने रेलगाडी दौडाई |

"अभी रुको| ", उसने मेरे मुंह पर हाथ रखा ,"अभी पर्दा तो उठने दो |"

फिर उसने मेरा नाम पूछा बेबी ने मुझे बता ही दिया था कि कोई मेरा नाम पूछे तो मुझे स्कूल का नाम बताना है |
"विजय सिंह ठाकुर "

पर्दा उठा , दूसरे माइक से उस युवक ने कहा ," जब तक फेंसी ड्रेस के हमारे अगले प्रतियोगी तैयार होते हैं, आपको विजय सिंह ठाकुर एक कविता सुनायेंगे |"

समझ रहे हैं न आप | बच्चों की प्रतिभा का उपयोग रिक्त स्थान को भरने के लिए किया जा रहा था |

पता नहीं क्या हुआ - मेरी आँखों के सामने इतने सारे सर थे | उसमें बेबी कहाँ है ? बेबी तो नहीं, पर दीपक की दादी जरूर दीख गयी और ? मुन्ना की माँ भी है | सब मेरी ओर देख रहे हैं | जल्दी से भागो यहाँ से |
मुझे कुछ एक्टिंग याद आई, कुछ नहीं, पर शब्द जरुर याद थे -

    "ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा ,
     पतला थाल बनाता है |
     जिस थाली मैं खाना
     मेरा शाम सबेरे आता है | "

लोग तालियाँ बजाते रहे |
मैं खड़े रहा वहीँ पर |
पर्दा गिर चुका  था |
और मैं हीरो बन गया था .....

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मुझे क्या मालूम था कि हीरो बनना इतना आसान है !

 बेबी मुझे स्टेज से नीचे ले आई |

स्टेज पर निर्मला छत्तीसगढ़ी की तरह साडी ,करधन और बड़ी बड़ी चांदी की चूडियाँ पहन कर स्टेज पर थी
"हमन छत्तीसगढ़ के हन ..."
बस, फँसी ड्रेस मैं एक या दो लाइने ही तो बोलनी होती है |

पर स्टेज पर क्या चल रहा है, किसी को कोई सरोकार नहीं था | कम से कम इक्कीस और बाइस सड़क वालों को तो बिलकुल नहीं - जो वहां उपस्थित थे | मैं उनसे घिरा हुआ था और उनके उटपटांग प्रश्नों की बौछार का सामना कर रहा था |

"टुल्लू, तुझे डर नहीं लगा ?" मुन्ना की माँ ने पूछा |

"डर ? किससे ? क्यों आंटी ? " यह प्रश्न ही मेरे पल्ले नहीं पडा |

"तुझे ये किसने सिखाया ?" शंकर की बहन डॉली ने पूछा |

"ये तो पच्चीस सड़क की एक बहनजी ने लिखकर दिया था | नाम ? नाम तो पता नहीं | हाथ पांव हिलाना शशि ने आज सिखाया था |"

"तुमने बहुत अच्छा कहा बेटा ! एक हमार मुन्ना हे .... एक बार फिर सुनाई दे हमका ..."दीपक की दादी काला चश्मा ठीक करते हुए बोली |

मंच पर एक मोटा आदमी सिकंदर की वेश भूषा पहन कर कह रहा था ,"भिलाई का लो .... हा हा हा हा ..." वह अट्टाहास कर रहा था | इधर इक्कीस बाइस सड़क के लोगों की ख़ास फरमाइश पर मैं फिर एक बार सुना रहा था ,"ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा ..."

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"ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा .... ठठेरा का मतलब क्या होता है बे ?"

मैं बबन और मुन्ना बेशरम के झुरमुट मैं घुसे , एक बेशरम की टहनी में बैठकर झूला झूल रहे थे | बबन के इन शब्दों में छिपी ईर्ष्या मैं साफ़ भांप गया था |

"ठठेरा याने ॥ बर्तन बनाने वाला |"

"क्या झोला झक्कड़ गाना है? " बबन बडबडाया |

"गाना नहीं, कविता ..." मैंने टोका |

"हाँ हाँ वही | मैं रहता तो सुनाता -
    कल्लू मटल्लू दो भाई थे |
    कुत्ते की झोपडी में सो रहे थे |
    कुत्ते ने लात मारी , रो रहे थे |
    बिल्ली ने 'शू' मारी , धो रहे थे |"

"हा हा हा ..." मुन्ना हंसा ," और मै रहता तो सुनाता ,
    "एक दो तीन, दादू की मशीन |
     दादू गया दिल्ली, वहां से लाया बिल्ली |
     बिल्ली गयी पूना , वहां से लाई  चूना |
     चूना बड़ा कड़वा , पान वाला भडुआ | "

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इस नौटंकी का अगला दृश्य ये था कि मुझे ईनाम लेना सिखाया गया |
जिन बच्चों ने स्टेज पर थोबडा दिखाया था, सब को ईनाम मिल रहा था | उन दिनों मार्केट का गणेश इसी धूम धाम से मनाया जाता था | अगर सबको ईनाम नहीं भी मिलता, अगर वे केवल प्रथम द्वितीय और तृतीय को ही ईनाम देते , तो भी निश्चित था कि मुझे कोई ना कोई पुरस्कार जरुर मिलता | आखिर ऐसे भी बच्चे थे , जिहोने "मछली जल की रानी ..." सुनाया था |  कुछ बच्चे तो भूल भी गए थे और तो और ... कुछ बच्चे तो रोने भी लगे थे ...

कुछ भी हो, ये मेरी ज़िन्दगी का प्रथम ईनाम था और मुझे पुरस्कार ग्रहण करने का प्रशिक्षण दिया जा रहा था |
"पहले जाकर उनके सामने हाथ जोड़ना ..."

"वैसे ही जैसे गणेश भगवान् के सामने जोड़ते हैं ?" मैंने जिज्ञासा की |

"तो ? प्रणाम और कितने प्रकार का होता है ?"

"मंदिर मैं कुछ लोग बजरंगबली के आगे दंडवत भी करते हैं |"

कौशल भैया ने सर पीट लिया ,"तुझे जो मैं बता रहा हूँ वो सुन ... फिर वो जब ईनाम देंगे तो झपट कर मत लेना | आराम से पकड़ना |  फिर उनके सामने ईनाम को सर से लगाना | अगर भारी है तो तुम खुद झुक जाना | ऐसे ..."
"भारी क्या होगा ?" बेबी बोली ,"बच्चों को तो कोपी, पेन्सिल और रबर ही मिलता है ..."

कौशल भैया ने बात अनसुनी कर दी, " फिर जो लोग सामने बैठे होंगे ... उनके सामने झुकना | हो सकता है , फोटोग्राफर तुम्हारी फोटो भी खींच दे ... "

... पर फोटोग्राफर ने मेरी फोटो नहीं खिंची | वह कला स्टूडियो वाला ही तो था | जिनकी उसने फोटो खिंची थी , गणेश पूजा के बाद कई दिनों तक उनकी फोटो उसने अपनी दूकान के शो केस में लगाकर रखा |सत्यवती से मिलने जाने के समय, बेबी जब भी उस दूकान के सामने से गुजरती, हर फोटो को ध्यान से देखती | मेरी फोटो उसने वाकई नहीं खिंची थी | आखिर इतने सारे तो बच्चे थे - "मछली जल की रानी" से लेकर रोने वाले तक - वह किस किस की फोटो खींचता ?

पुरस्कार में मुझे कॉपी पेन्सिल और रबर ही मिला | वह दो लाइन की कॉपी थी , जिसके पर हाथी की तस्वीर बनी थी और अंग्रेजी में - जैसा मुझे लक्ष्मी भैया ने बताया - "अलंकार" लिखा था | पर उनका कहना था कि "अलंकार" का "ए" तो "कैपिटल" होना चाहिए, "स्माल" नहीं | हलके हरे पीले रंग की कॉपी अगले एक साल तक इधर या उधर भटकते रही, जब तक कि पहली कक्षा में मेने उसे "शुद्धलेख" की कॉपी ना बना ली |

लाल- काली पट्टियों वाली पेन्सिल और रबर भी अगले साल तक मेरे पास बने रहे | रबर एकदम चौकोर
था , काजू कतली के टुकड़े जैसा और उसमें एक बदक की तस्वीर बनी थी | पर स्कूल में एक दिन वह रबर अचानक ऐसे गायब हो गया जैसे गधे के सर से सींग | या तो मेरे खीसे से खिसक गया, या किसी ने चुरा लिया |

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और वो दिन अचानक आ गया |

शाम को स्कूल से आने के बाद कौशल भैया ने बस्ता एक ओर पटका, स्कूल के कपडे बदले, हाथ मुंह धोया और काम पर लग गए | आँगन में माँ सिगडी जला रही थी | वहां से चुपचाप माचिस की डब्बी उठाकर परछी में आ गए , जहां गणेश भगवन बैठे थे | जिस थाली में गणेश भगवन का दिया रखा था, वहां आखिरी बार दिया जलाया | अगरबत्ती के पाकेट से दो अगरबत्ती निकाल कर संगमरमर के स्टैंड में लगाया | वे इतनी जल्दी में थे कि कोई फूल भी नहीं चढाया |

माँ पीछे पीछे आ गयी | कौशल भैया आरती की तैयारी करते सामान भी समेटते जा रहे थे |

माँ दो मिनट खड़े देखते रही | फिर पूछ ही लिया ,"सब कुछ समेट रहे हो ?"

"हाँ माँ आज गणेश जी को ठंडा करना है | अनंत चतुर्दशी है न ?"

अचानक वातावरण टनों भारी हो गया |

गणेश चतुर्थी की तो स्कूल में छुट्टी होती थी, पर अनंत चतुर्दशी की नहीं | शायद इसलिए माँ को आभास नहीं हुआ |वास्तविकता तो ये थी कि दस दिन किस तरह पंख लगाकर उड़ गए, किसी को पता नहीं चला | माँ लपक कर बैठक में टंगे बाबूलाल चतुर्वेदी का पंचांग उतर लायी और ध्यान से देखने लगी | फिर ज्यादा सूझा नहीं तो बगल में बैठे लक्ष्मी भैया से बोली,"देख तो बेटा आज चतुर्दशी है क्या ?"

"चतुर्दशी" क्या होती है , ये तो मुझे मालूम नहीं था | माँ ने अगर ये प्रश्न मुझसे पूछ होता तो मैं इसका जवाब जानता था - आज गणेश जी की विदाई का दिन है |

दोपहर को ही तो मैं मार्केट के गणेश जी को विदा कर के आया था - पर आते वक्त मेरा मन बार बार कह रहा था - नहीं, घर के गणेश जी को शायद आज विदा नहीं करना है | शायद आज नहीं .... पर मेरा मन आशंका से घिरा हुआ था |

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दोपहर को ,जब लोग या तो नींद की झपकी ले रहे थे , या स्कूल में थे - हमारी नज़रों के सामने मार्केट के गणेश भगवान् को उठाया गया |

मार्केट में ट्रक के पास हम लोग ठगे से खड़े देख रहे थे | लोग नाच रहे थे, गा रहे थे, गुलाल उडा रहे थे | यहाँ तक कि आम के पेड़ के नीचे बरसों से बैठा राजा मोची अपना काम छोड़कर और विनम्र रिक्शे वाला गफूर अपने रिक्शे के साथ आ गया | पान वाले पंडित के हाथ तो चल रहे थे , पर आँखें वहीँ लगी थी | गोप की दुकान वाला बूढा कुरते बनियान में ही अपनी दूकान छोड़कर ट्रक के पास खडा था |

हमारे देखते देखते , वह सिंहासन, जिस पर गणपति पूरे दस दिन विराजमान थे , सूना हो गया | बी एस पी के ट्रक के पीछे का कवर खोलकर लकडी के फट्टों से ढलवा रास्ता बनाया गया था | गणेश जी को तख्त समेत एक ट्राली में बड़ी ही सावधानी से रखा गया | प्रतिस्थापना के समय हुए झगडे को देखकर आयोजकों ने पंडित के पचडे में न पड़ने का निर्णय लिया | अनिल डेरी के मालिक के पिताजी ने ही कुछ मन्त्र पढ़ा , वही काफी था |

बसंत होटल वाला आज फिर बूंदी बाँट रहा था | अपनी तरफ से मैंने मुन्ना , छोटा , बबन और सुरेश को चेतावनी दे दी थी | उसके बावजूद बबन बाज नहीं आया और दोनों हाथ पसारकर लालची जैसे बूंदी का प्रसाद ले आया | मुझे मालूम था कि वो घर पहुँचते पहुँचते "औ औ " करके उलटी करेगा , तब अकल आयेगी कि टुल्लू सच बोल रहा था |

"कहाँ जा रहे हैं गणेश लेकर ?"

"शिवनाथ नदी जा रहे हैं | चलना है ?" ट्रक के ऊपर से बाटा के जूते की दुकान वाले ने कहा |

"हाँ हाँ चलते हैं |" बबन लपका |

"ऐसे नहीं, रस्ते भर नाचना पड़ेगा |आता है नाचना ?"सरकारी आटा चक्की वाली ने पूछा | 

"थोडा थोडा आता है| "

"ठीक है, नाच के बताओ |"

बबन ने थोडा आगे पीछे हाथ पांव हिलाके, कमर मटका कर दिखाया |

"ठीक है , आ जाओ ऊपर |" चक्की वाले ने हाथ दिया|

'मत जाओ बे | गुम जायेगा |" मुन्ना वहीँ से चिल्लाया |

"अरे कुछ नहीं | ", साईकिल दूकान वाला बोला ,"शाम को वापिस आ जायेंगे | "

बबन ने उछलकर हाथ थामा और ट्रक के चक्के पर पांव जमाकर दो तीन बार ऊपर चढ़ने की कोशिश की , पर हर बार वह फिसल जाता था | अचानक ट्रक का इंजन भरभराया और ट्रक स्टार्ट हो गया |

"गणपति बाप्पा " अनिल डेरी वाले ने नारा लगाया |

"मोरिया " नारों ने आकाश गूंजा दिया |

अपनी पांच नंबर की कार के पास हाथ बाँधकर खड़े डाक्टर जैन गणेश भगवान् को जाते हुए देखते रहे |
...यह सवाल अब मुंह बाए खडा था - क्या घर के गणेश को भी आज ही विदा करना है ?

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"अभी कोई घर में नहीं है बेटा | थोडी देर रुक जाओ तुम्हारे बाबूजी को आने दो " माँ ने विनती भरे स्वर में कहा |
"नहीं माँ , अँधेरा होने के पहले गणेश जी को ठंडा करना है | सूरज डूब रहा है | वक्त ही कहाँ है ?"

इस शाम की आरती में पहली बार कोई बच्चा नहीं था | सब तो बाहर खेल में मशगूल  थे | घर लौटती चिडिया की आवाजों के साथ उनके खेलने की किलकारियां हवा में गूंज रही थी |

वह नारियल, जो गणेश भगवान् के सिंहासन के पास पहले दिन रखा गया था , उसे कौशल भैया आँगन में ले गए और संड़सी से उसका जल्दी जल्दी बूच निकाला | माँ ने उसे समेट के आँगन में आम के पेड़ के चबूतरे में राख के ढेर के पास रख दिया | अब ये बर्तन मांजने के काम आएगा | छिला हुआ नारियल कौशल भैया ने एक थैले में रखा |

"मुझे पहले बताना था, मैं कुछ बना देती |" माँ टिन के डब्बे टटोल रही थी, जिसमें उसने बेसन के सेव और गुड के लड्डू बनाकर रखे थे | पता नहीं, कितने लड्डू बाकी थे, क्योंकि माँ की नजर बचाकर हम चोरी चोरी बीच बीच में उसमें हाथ साफ़ कर लेते थे | दूसरे  बिस्कुट के डब्बे में कुछ अडिसा जरुर बाकी थे | आनन फानन में माँ ने पंखाखड में जाकर बैंगनी रंग की गोदरेज की अलमारी खोली |

गोदरेज की वह अलमारी हम लोगों के लिए किसी खजाने से कम नहीं थी | उसमें माँ के गहने , कीमती कपडे , बाबूजी के दो तीन कोट, बच्चों को मिले प्रमाणपत्र , पुराने जमाने के - चाँदी और सोने के सिक्के तो थे ही, साथ ही काजू और किशमिश तथा बड़े से डब्बे में एक या दो मिठाई पेड़े, पेठे , काजू कतली - भी होती थी | जब घर में कोई अति विशिष्ठ आगंतुक आता था , तो उससे बाबूजी बैठक में बात करते रहते | फिर बातचीत के बीच मैं चाय बनाती माँ से चुपके से कहते, "शर्मा जी के लिए चाय के साथ मिठाई भी भिजवा देना | "

तब माँ बिस्तर के गद्दे के नीचे से चाबी निकालकर दरवाजा खोलती | मेहमान के साथ साथ सब बच्चों को, अगर वे घर में होते तो - थोडी बहुत मिठाई मिल जाती और थोडी बहुत मशक्क्त के बाद किसी तरह माँ फिर अलमारी में ताला लगाकर चाभी गद्दे के नीचे डाल देती और हम बच्चे फिर किसी ऐसे विशिष्ठ आगंतुक के दुबारा आने का इंतज़ार करते |

आज अनंत चतुर्दशी के दिन- गणेश जी की विदाई के समय वह अलमारी खुल गयी | माँ ने पेड़े का आधा किलो का पूरा भरा डिब्बा - जो कुछ दिन पहले बाबूजी दुर्ग के जलाराम की दुकान से लाये थे , कौशल भैया की उसी झोली में डाल दिया जिसमें नारियल तथा और मिठाइयां थी |

कैसी आरती थी वो ? सफ़ेद शंख बजाने वाला भी कोई नहीं था | ना तो कोई कप के ढक्कन बजा रहा था , ना कोई चम्मच से थाली बजा रहा था | न तो गणेश भगवन का जयघोष हुआ | ना ही आरती के बाद दिए की लौ छूकर मस्तक तक छुआने के लिए बच्चों की धक्का मुक्की हुई |अब तक तो पहले चार लाइनों में मेरी आवाज शायद सबसे ऊँची होती थी, पर आज मानो जीभ तालू से चिपक गयी थी |

बहुत सावधानी से गणेश भगवान के पूजा के अवशिष्ट - अगरबत्ती की राख और डंठल, सूखे, मुरझाये फूल ,बचे हुए पुराने प्रसाद , कौशल भैया ने सावधानी से सामान के एक थैले में डाल दिया | स्टोर रूम में चावल के दो बड़े बड़े टिन के बक्से थे | माँ ने उसमें से थोड़े चावल निकाले फिर मुझे कहा ," जा तो बेटा, घेरे से दूब लेकर आना |"

"दूब ? "

"हाँ, ऐसी घास, जिस पर किसी का पांव ना पड़ा हो | ना आदमी का, न जानवर का |"

"और चिडिया का ?"

कौशल भैया झल्लाकर बोले,"किसे भेज रहे हो माँ ? इसे कुछ समझ भी है ? मैं लेकर आता हूँ |"

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सीढियों से उतारते समय केवल दो ही लोग थे - मैं और कौशल भैया | तालाब के पास पहुँचते पहुँचते ये संख्या बीस तक जा पहुंची थी |

फिर से शुरू करते हैं | कौशल भैया ने सावधानी से गणेश भगवन को पीठे समेत उठाया | सब कुछ सूना सूना लग रहा था | हाथी अभी भी सूँड उठाये खडा था | क्रेप और झिल्ली पेपर की सजावट ज्यों की त्यों थी | कोपरे में फव्व्वारा आज नहीं चला | पीतल के फूलदान में सजावट के प्लास्टिक के फूल  वैसे ही रखे थे |
शायद वे सजीव होते तो वे भी चल पड़ते |

हाँ, माँ ने चुपचाप शंख उठाकर पंखाखंड में भगवान् के सामने रख दिए (जहाँ अगले साल तक वह यों पड़ा रहा |अगले साल जब उसकी नींद टूटी तो उसने देखा कि  उसका एक और छोटा भाई वहां पड़ा है , जिस पर 'सुखराम सिंह ठाकुर' लिखा है .... अस्तु ...)

" जा न बेटा, तू भी जा " माँ ने मेरा ध्यान भंग किया |

बबलू  मैदान के दूर वाले कोने मैं फुटबाल खेल  रहा था | शायद कौशल भैया को इससे कोई सरोकार नहीं था | वे गणेश उठाकर चल ही पड़े थे , पर समस्या उन दो झोलों की थी | एक को तो गणेश जी के साथ ही तिरोहित करना था - उसमें पूजे के अवशिष्ट थे | द्सरे में प्रसाद और पूजा के लिए एक थाली, अगरबत्ती , नारियल , माचिस , गंगाजल और दूब रखे थे | अब मेरी जिम्मदारी थी कि मैं उन झोलों को सवधानी से उठाऊ | कौशल भैया की  अनिच्छा चेहरे पर साफ़ झलक रही थी | वे मुझे "जकला" (अनाड़ी ) ही समझाते थे , पर मज़बूरी थी |

"सम्हाल के ले जाना बेटा " ये हिदायत माँ ने मुझे दी या कौशल भैया को - पता नहीं | हाँ, मैंने मुड़ कर देखा, उनकी आँखें जरुर डबडबा आई थी | पीछे लक्ष्मी भैया भी धिसटते घिसटते सीढ़ी के पास तक आ गए थे | उससे आगे वे जा नहीं सकते थे |

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"मुझे भी जाना है " संजीवनी बोली |

"माँ , देख तो ये जाना चाहती है " बेबी ने उसे रोकते हुए कहा |
"नहीं बेटी मत जा लड़कियां नहीं जाती " माँ ने उसे सम्हाला |

बाद में मैं माँ की इन बातों को समझ पाया - जो किसी रुढी या परंपरा की लकीर नहीं, बल्कि यथार्थ से भरा निर्णय होता था ...

घर से छोटी पुलिया के बीच की दूरी कितनी रही होगी - मुश्किल से ७५ मीटर |

जिन बच्चों ने देखा, सभी मन्त्र मुग्ध से खींचे चले आये ...

छह सात बच्चे रेस टीप खेल रहे थे | खंभे में सर छिपाकर छोटा का बड़ा भाई रमेश दाम दे रहा था | बच्चे इधर उधर भाग कर छिप रहे थे | कोई हैज में , कोई सड़क पर खड़ी मुन्ना के पिताजी की जावा के पीछे , कोई गेट की आड़ में .... कौशल को गणेश लेकर जाते देख कर सब अपनी अपनी जगह से बाहर निकल आये | यह बात बेमानी ही थी कि विनोद पहला टीप हुआ और मनोज ने रमेश को 'रेस' कर दिया | सब के सब खेलना भूल गए | अपने घर के बाहर बंडू अकेला लट्टू चला रहा था | लट्टू और रस्सी अपने घर में फेंक कर वह भागता हुआ चला आया | बात फैलते देर नहीं लगी और मैदान के दूसरे  छोर में, जहाँ बबलू  और दूसरे लड़के फुटबाल खेल रहे थे , खेल वहीँ बंद हो गया |

नहीं आई तो लड़कियां | संध्या, सुषमा ,मीना का "आमलेट - चाकलेट " का लंगडी बिल्लस का खेल जरुर थोडा प्रभावित हुआ | रस्सी कूदती लड़किया जरुर थोडी ठिठकी, पर विसर्जन के उस जलूस में कोई शामिल नहीं हुआ | माँ की बात मानो रेखांकित हो रही थी ," ... लड़कियां नहीं जाती - विसर्जन में |"

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दौड़ते भागते बंडू ने नारा लगाया ," गणपति बब्बा ...."

और बब्बा - यानी  कि दीपक के बब्बा हाथ में छड़ी पकड़कर भीड़ को जाते हुए देख रहे थे |

"जल्दी जाओ भैया सूरज डूब रहा है| " वे मुस्कुरा रहे थे|

एक और आदमी मुस्कुरा रहा था | किसी की नज़र उस पर नहीं पड़ी, क्योंकि भीड़ थोडी आगे बढ़ गयी थी |
मैंने पलट कर देखा वह छोटी पुलिया के पास खडा था | सांवला सा चेहरा - पस्सेने से भीगी बालों की  एक लट चेहरे पर झूल रही थी | बगल में एक झोला दबाये ठिठक कर वह मुस्कुराते हुए अपनी कृति को जाते हुए देख रहा था |मेरी इच्छा तो हुई कि वह भी शामिल हो जाये, जिसने अपने हाथों से मिट्टी को मूर्त रूप दिया था |
हाँ , वही तो था - कांशी राम |

.... काम ख़तम करके अपने घर सुपेला की ओर जा रहा था | वह मुझे लगा, अभी वह आएगा - आ जायेगा - सब के साथ जयघोष करेगा | मैंने कई बार पीछे मुड़कर देखा पर वह नहीं आया | जहाँ खडा था , वहीँ से उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और फिर मुड़कर अपने घर की ओर चल पड़ा |

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शाला नंबर आठ के पीछे रामलीला मैदान और दाहिनी ओर तालाब था | शाम तो क्या दिन के समय भी तालाब सूना ही रहता था | सबके घर में नल थे , तालाब में कौन नहाये | सत्यवती के पिताजी जरुर सुबह सुबह किनारे के पत्थर पर कपडे पटक पटक कर बटन तोड़ते थे | बाकी जो लोग , जिनके घर गाय या भैस थी , जैसे छोटा और विनोद के घर - उनके चरवाहे जरुर दो तीन दिन में या मालिक की मांग पर - उन्हें तालाब में नहला देते थे | पर घर में गाँव से आने वाले कई मेहमान - जिन्हें बंद कमरे में बाल्टी या नल के पानी से नहाना अच्छा नहीं लगता था - जैसे कि बलराम मामा - वे जरुर तालाब में डुबकी लगाना पसंद करते थे ...

"...जा तो बेटा , इन्हें तरिया (तालाब) दिखा ला |" माँ मुझे निर्देश देती | मुझे ख़ुशी ही होती- उनका मार्गदर्शन करने में | तालाब के किनारे आम ,महुआ , हर्रा और बहेडा के पेड़ थे, जिनके तने से ढेरों गोंद निकलता था | कई बार स्कूल की आधी छुट्टी में शाला नंबर आठ के बच्चे शिक्षक और चुगलखोर लड़कियों की आँख बचाकर आते और पत्थर या गुलेल से या तो उड़ने वाले तोतों को निशाना बनाते या महुआ या हर्रा के हरे गोल -गोल फल तोड़ते , जिनके खोल काफी कड़े होते | फिर वे नुकीले पत्थर से उसका खोल तोड़ते ही रहते कि आधी छुट्टी ख़तम होने की घंटी बज जाती | फिर सारे के सारे सब कुछ छोड़ के स्कूल की ओर दौड़ पड़ते |

एक दिन मैंने मुन्ना को बताया कि बाज़ार से आने के समय मैं बेबी के साथ तालाब के किनारे से आया था |

"क्या बात कर रहा है ?" वह बोला ,"शाम को मत आया कर ऐसे |"

"क्यों ? क्या बात है ?" मैंने पूछा |

"भू भू भूत पकड़ लेगा  |"

"क्या ? कौन ?" मैंने पूछा |

उसने कसम खा कर बताया कि एक बार उसके राजा चाचा , जो कभी कभार तालाब के किनारे मछली पकड़ने जाया करते थे , उन्होंने एक दिन शाम को वहां भू भू भूत देखा था |

"भू भू भूत क्या होता है ?" मैंने पूछा |

"अरे बाप रे मुझे डर लगता है |"

और वो भाग गया |

शाम को मैंने बेबी से पूछा ,"भू भू भू क्या होता है ?"

वह चौंक गयी ,"कौन बताता है तुझे ये सब बातें ?"

"कोई नहीं, बस मेरे मन में ऐसे ही आया |"

"ऐसे कैसे आया ? जरुर मुन्ना ने बताया होगा उसकी माँ से बोलना पड़ेगा |"

"नहीं सच्ची, मेरे मन में ऐसे ही आया | मैंने चंदामामा में फोटो देखा था | क्या होता है, भू भू भूत ?"

वह कुछ देर सोचते रही फिर बोली,"मरने के बाद आदमी भूत बन जाता है | "

"पर मरने के बाद तो आदमी भगवान् के पास चले जाता है | " मैं बोला |

"जो लोग भगवान् के पास नहीं पहुँच पाते वो भूत बन जाते हैं  |"

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जो लोग भगवान् के पास नहीं पहुँच पाते , वो भूत बन जाते हैं ...

....तालाब के किनारे भूत रहते हैं ....

....हम लोग गणेश भगवान को विदा करने उसी तालाब की ओर बढ़ रहे थे ....

शाला नंबर आठ के पास से गुजरते समय इक्कीस सड़क के भी कुछ लोग जुड़ गए |

बीस सड़क के पास ही वह खडा था - वसंत , कौशल भैया का दोस्त - बंछोर साहब का अर्ध विक्षिप्त भाई
"कौशलेन्द्र, गणपति को लेकर कहाँ जा रहे हो भाई ?"

" आज विसर्जन है न |"

"अरे हाँ मार्केट का गणेश तो चले गया इसे कहाँ डुबाओगे ? "

"डुबाओगे", यह सुनते ही बंडू को तैश आ गया पर बंछोर के उस भाई को सब जानते थे उसकी बहकी बहकी बात को किसी ने बुरा नहीं माना |
 
"मेरी बात मानो, शिवनाथ नदी मत जाओ बगल में तो अपना तालाब है न " वह अपनी ओर से सलाह दिए जा रहा था|

"वहीँ तो जा रहे हैं " मनोज ने बताया |

" हाँ भाई इसी में समझदारी है मैं भी चलता हूँ तुम्हारे साथ |" और बसंत भी पायजामा सम्हालते हुए हमारे साथ हो लिया |

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अस्ताचलगामी सूरज की अन्तिम रौशनी में तालाब के किनारे , उस समय भी मेला सा लगा था ना जाने कितने लोग अपने अपने गणेश को विदा करने आये थे पर बात क्या थी ? सब के सब चुप क्यों थे ?

??????

॥उसी शाम के धुंधलके में किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया , कस के ....... इतने जोर से कि कलाई के चारों ओर  खून जमता महसूस हुआ |

"झोले में क्या है बचुआ ?"

"???"

"छोड़ दो उसे " कौशल भैया बोले |

"आप अपना गणेश पकडे रहिये बाबू साहेब | गिर जायेगा तो टूट जायेगा | " उसका साथी वहीँ से ठहाका लगा कर हंसा | चार छह और साए हमारी ओर बढ़ने लगे | ये तो पूरा  ग्रुप था उन गुंडों का ...

"परसाद है ना इसमें ? हमका दई दो " उस मुछ वाले को तो मैंने कभी आस पड़ोस में देखा नहीं था | ये तो पान वाले पंडित की बोली बोल रहा था | सोना चांदी, पैसा कौडी कुछ नही , सिर्फ़ भगवान् के प्रसाद की लूट खसोट ....
"पहले पूजा हो जाने तो दो | फिर प्रसाद भी मिल जायेगा |" कौशल भैया बोले |

"फेर वही बात | हमरे पास टेम नहीं है | आप चार घंटा लगा के पूजा कीजिये पांडे जी | हमका परसाद का झोला दे दो और छुट्टी करो |"

वसंत बीच में आ गया ," देखो भाई मंदिर में भी परसाद तो पूजा के बाद ही मिलता है न | " उसने भोलेपन से हाथ छूकर समझाने की कोशिश की |

"पायजामा लाल पिद्दी  ! हट यहाँ से |"उस आदमी के हलके धक्के से ही लड़खड़कर बसंत नीचे गिर पड़ा | चारों ओर सन्नाटा छा गया सुई पटक सन्नाटा ....सबके पावों में कील ठुक गयी | जुबान पर ताला लग गया ......

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....और तभी एक वायुयान आकाश से गुजरा ....

वह ज़माना था, जब भिलाई के आसमान से हवाई जहाज गुजरता, तो ट्रैफिक , जो कि  आम तौर पर साईकिल या स्कूटर पर होता, ठहर जाता और सब की निगाहें ऊपर उठ जाती | कई बार, भरी दुपहरी में मैं हवाई जहाज की " घों घों" सुनते ही खाना छोड़कर चिलचिलाती धूप में हवाई जहाज की एक झलक पाने के लिए नंगे पाँव बाहर दौडा था | मैं अकेला नहीं होता | सारे बच्चे सड़क पर होते | बच्चे ही नहीं, बब्बा भी अपनी छड़ी लेकर सड़क पर दिखाई देते | हवाई जहाज देखते ही हम एक दूसरे को दिखाते , "वो जा रहा है ......"

....तो इस समय शाम के धुंधलके में एक हवाई जहाज आसमान से गुजरा, थोड़े पास से... उसकी लाल पीली बत्तियां आकाश में फडफडा रही थी | सबका ध्यान ऊपर की ओर था | मुझे कुछ दिखाई दिया, जो किसी ने नहीं देखा .... पता नहीं क्यों...?

...हवाई जहाज से एक धब्बा प्रकट हुआ ....बिंदु के आकार का धब्बा धीरे धीरे बड़ा होते गया ....... थोडा नीचे आते आते ही वह एक पैराशूट मैं बदल गया ....उस धुंधलके में भी केवल एक ही झलक काफी थी | उस हवाबाज को पहचानने के लिए ... और उस बहु परिचित चेहरे को तो तो मीलों दूर से पहचाना जा सकता था ...

....ओह, एक मिनट | सिर्फ एक मिनट ...मैं कुछ भूल गया था .... तीन शैतान भाइयों के बारे में तो मैंने आपको बताया ही नहीं....

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गणेश विसर्जन का जुलुस पूरा रिवाइन्ड करने की जरुरत नहीं, सिर्फ वही दृश्य देखिये, जब वह इक्कीस सड़क के बगल से गुजरा था | कोने के घर में एक अधेड़ बंगाली औरत अपने घेरे से चिपक कर जूलूस जाते देख रही थी ....वह तीन शैतान भाइयों की माँ थी ...पीछे एक मोटी लड़की बरामदे में बैठी थी, वह इनकी बहन पूर्णिमा थी |
नहीं, वे वे तीन नहीं ,चार भाई थे, पर तपन को हम बाकी तीन के पिंजरे में नहीं डाल सकते थे | तपन एक समझदार , जिम्मेदार, नौकरीपेशा , सिगरेट फूंकने वाले, हमेशा सफ़ेद कपडे पहनने वाले संजीदा युवक थे | पर उनके तीनों छोटे भाई ? दुल्लू की एक झलक तो देखी ही थी आपने.... उससे बढ़कर था उसका बड़ा भाई नुक्कू .... और उन सब का बड़ा भाई था सप्पन ......

...और वही सप्पन था जो आकाश से टपक पड़ा था ..... ! .... एक दम सही समय पर ..... ! शायद उसके टपकने का इससे बेहतर समय हो ही नहीं सकता था ......

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तो मैंने कहा , जब एक वायुयान आसमान में पास से गुजरा तो सबकी निगाहें ऊपर थी ...
"तडाक ....." इस भयंकर शब्द ने उनका ध्यान भंग किया | जब निगाह पंख कटे पंछी की तरह जमीन पर लौटी और उस आवाज़ की ओर घूमी तो गोधूलि बेला की उस आभा में में उन्हें एक सांवला सा चेहरा दिखाई दिया | सबने देखा, सप्पन खडा हुआ था -मुट्ठियाँ भिची हुए, शारीर का वजन दोनों पावों पर बराबर, एक आक्रामक मुक्केबाज की मुद्रा में .... जिसने वसंत को धक्का दिया था , वह मवाली खुद धूल चाट रहा था !

चोट खाए सांप की तरह उसने उठने की कोशिश की | पर इससे पहले कि वह सम्हालता ,, सप्पन ने लपककर उसका कालर पकड़ लिया और धकलेते हुए ले गया | सारे गुंडे सप्पन पर पिल पड़े ,"मारो साले को ....."

सप्पन ने उसी मवाली को आती हुई भीड़ पर  ही  धकेल दिया |

इस चिंगारी ने मानों सबमें जोश  भर दिया | सबकी मुट्ठियों ने मुक्के का रूप ले लिया | अब वहां कौशल और मेरे सिवाय कोई दर्शक था ही नहीं |

ऐसा अंधड़, औघड़ , लेकिन चौतरफा आक्रमण अनपेक्षित था | एक दादा वहां से भाग खडा हुआ | उसको भागते देखकर दूसरो की हिम्मत टूट गयी | दूसरे दादा ने किसी तरह अपने आप को छुडाया और वो भी भागा | सारे के सारे शाला नंबर ८ की इमारत की और भागे और अंतर्ध्यान हो गए | लड़कों ने कुछ दूर तक उनका पीछा किया, फिर वापिस लौट आये | उनको और भी काम करना था |

सप्पन वहीँ मेढ़ पर खड़े होकर चिल्ला चिल्ला कर उहें ललकारते रहा ," साले,भुखमरे ! सुपेला के सूअर !! बच्चों पे दादागिरी झाड़ते हो ? फिर सेक्टर २ में दिखे तो टांग तोड़ दूंगा| "

बरसों हम लोग वहीँ गणेश का विसर्जन करते रहे | किसी न किसी रूप में कोई न कोई आवारा युवकों का ग्रुप आते ही रहा | कभी बोरिया से, कभी सुपेला से, कभी सेक्टर २ की ही नाले के पास वाले २४ यूनिट या ट्यूबलर शेड से | कोई ग्रुप कम उद्दंड होता, कोई ज्यादा | भगवान्  कभी किसी सप्पन को भेज देते , कभी हमें ही अपने आप निपटने छोड़ देते | जब विसर्जन की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आई तो मैं मुंह अँधेरे ही अकेले निकल पड़ता था |

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एक साफ़ सुथरा स्थान चुनकर गणेश भगवान् को रख दिया गया | दिए जलाने मैं काफी मुश्किल आई | शाम का मौसम था | ठंडी, तेज हवाएं चल रही थी | कौशल भैया एक एक कर के माचिस की तीली निकालते रहे | आग की लौ दिए तक पहुँचने क़े पहले ही बुझ जाती | अब दो तीन लोगों ने अपने हाथ की आड़ बनाई और हलके अँधेरे को चीरता दीपक जल उठा | शायद एक घंटा पहले उसकी लौ उतनी आभा नहीं बिखेरती, जितनी डूबता सूरज की लालिमा में अब बिखेर रही थी | आम,, महुआ और हर्रा के वृक्षों में लौटती चिडियों का चहचहाना तेज - और तेज होते जा रहा था |

अचानक एक सनसनाता हुआ पत्थर आया और तालाब की मेढ़ से टकरा कर उछला और हमारे सर के ऊपर से होता हुआ तालाब के पानी में जा गिरा |

"....छपाक ....."

थोड़ी ही दूर खडा सप्पन वापिस तालाब की मेढ़ की ओर भागा ...
"तुम लोग तैयारी करो, मैं देखता हूँ सालों को |" वह वहीँ से चिल्लाया | वह मेढ़ पर तिरछा भागकर कुछ दूर निकल गया , हमारी भीड़ से दूर | वैसे भी तालाब की मेढ़ इतनी ऊँची थी कि अगर कोई दूर से देखे तो तालाब के जल के पास खडा व्यक्ति दिखाई नहीं देता था |

खैर , गणेश जी की आखिरी आरती शुरू हुई | वैसे भी मुझे चार लाइनों से ज्यादा आरती आती नहीं थी | मेरी निगाह एक पल गणेश जी के चेहरे पर पड़ती |  दिए की फडफडाती लौ में उनके चेहरे पर उदासी के भाव साफ़ झलक रहे थे | फिर मेरी निगाह मुंडेर पर जाती , जहाँ सप्प्नन अकेला पत्थर चला रहा था | पर नहीं, वह अकेला नहीं था | बब्बन और मुन्ना कब भीड़ से गायब हो गए , मुझे पता ही नहीं चला | वे भी सप्पन के दायें बाएं खड़े पत्थर फेंक रहे थे और आने वाले पत्थर से उछल उछल कर बच रहे थे | पर नन्हे हाथों में कितनी जान है, उन्हें शीघ्र पता चल गया | अ़ब वे उसके लिए पत्थरों का ढेर लगाते जा रहे थे |

"कहाँ देख रहा है ?" कौशल भैया बोले , "दिया बुझ जायेगा, जल्दी कर | "

पूजा की थाली मेरे सामने थी | मुझे पूजा की आरती लेनी थी |

दिया गणेश जी के पीढे पर रखकर कौशल भैया सावधानी से पानी में उतरे |

तभी उछालते कूदते , खिलखिलाते मुन्ना और बब्बन वापिस आ गए |

"टुल्लू , टुल्लू, ! सप्पन का एक पत्थर पड़ा साले की खोपडी में ... टनं से आवाज़ आई और भाग गए सूअर !"
ठिठकते क़दमों से अँधेरे में सप्पन भी नीचे आ रहा था , पर उसकी निगाहें बार बार पीछे मुड़कर देख रही थी |
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कौशल भैया पानी में आगे बढ़ते ही जा रहे थे | अब पानी उनकी कमर तक आ गया था |

"आगे मत जाओ कौशलेन्द्र | " वसंत वहीँ से चिल्लाया ,"आगे लद्दी है यार | "

हिलते पानी में दिए के प्रकाश में गणेश भगवान् की छवि दिख रही थी |ऊपर आकाश में बादलों के पीछे से चाँद का छोटा सा टुकडा दिख रहा था | सब तालाब के किनारे दम साधे देख रहे थे | कौशल भैया ने पीढा धीरे धीरे पानी में डुबाया | एक क्षण के लिए जलता दिया पानी में तैरा और अगले ही क्षण घुप्प अन्धकार छा गया | गणेश भगवान् अपने धाम को चले गए |

"गणपति बब्बा ...."बंडू जोर से चीखा |

" मोरिया ...."

"उच्चा वर्षी ...." उसने फिर आवाज़ बुलंद की |

"लोकारिया ...." तालाब के आसपास खड़े वे सारे लोगों ने, जो अपना अपना गणेश ठंडा करने आये थे, एक स्वर मैं हुंकार भरी | जाते जाते गणपति ने उनकी वो आवाज वापिस कर दी जो एक घंटा पहले छिन गयी थी |

दूर हनुमान मंदिर से शाम की आरती की घंटे घड़ियाल और शंख की ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो रहा था |

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( वर्ष - १९७०-७१ , स्थान - भिलाई )    

अगले बरस फ़िर आना गणपति - १

तो उस तीन बेंड के रेडियो को अचानक एक बीमारी ने जकड़ लिया था | 

जी. ई. सी. का वह रेडियो अब तक अच्छा खासा चलता था | मीडियम वेव , शॉर्ट वेव १ और शॉर्ट वेव २ - कुल तीन बेंड थे | रायपुर स्टेशन की प्रातःकालीन सभा शुरू के साढ़े छः बजे शुरू होती थी | प्रायः वह उस समय प्रातः पाली में स्कूल जाने वाले लोगों के लिए घड़ी का काम करता था | पहले ३-४ मिनट तो "टी री री री री ' काफी देर तक बजते रहता था | फिर मिर्जा मसूद या किशन गंगेले आकर तारीख बताते थे - पहले भारतीय कैलेंडर 'शक संवत्' में, फिर 'तदनुसार 'अंग्रेजी ' कैलेंडर में और जैसे ही शहनाई बजती, घर में मानो अफरा-तफरी मच जाती | प्रातः पाली में जाने वाले लोगों के हाथ, पाँव जुबान सब तेजी से चलते | बबलू भैया की हेयर स्टाइल "फुग्गा कट" को आखिरी टच देने का समय आता और बेबी की बेल्ट , पता नहीं, कहाँ चले जाती |  पूछना यानी माँ को बम के गोले छोड़ने की दावत देना होता | माँ को काफी काम होता था | बगैर नहाये माँ रसोई घर में नहीं घुसती थी - और नहाने के काम तो घर में झाड़ू लगाने के बाद ही होगा न ! फिर पानी भी भरना होता , क्योंकि नल चले जाता | सिगड़ी  जलाना एक बड़ा काम था | ऊपर से बच्चे अगर पूछें,"माँ सुई धागा किधर है ? बटन टूट गया है " तो माँ की त्यौरियां चढ़ना नितांत स्वाभाविक था |

और सबसे बड़ी मुसीबत तब आती , जब जूते पहनने के समय पता चलता कि मोजा ही नदारद है | मोजे के गायब होने का प्रसंग जल्दी ही - अभी तो रेडियो की बात चल रही थी |

हाँ , तो रेडियो में बाबूजी सुबह आठ बजे का समाचार सुनते सुनते काम पर निकल जाते | रेडियो पंखाखंड में रखा हुआ था , हम बच्चों की पहुँच से ऊपर,.. ऊपर के खाने में माँ शाम को चौपाल सुनती थी - बरसाती भैया और बिसाहू भाई की पेशकश पर ! बाकी लोगों को - बेसब्री से इंतज़ार होता था - बुध की शाम का जब बिनाका गीत माला का  आठ बजे बिगुल बजता था , "तू तुन तू रु तू तू तू ता रा रा ता रा रा" | आस पड़ोस से ये स्वर लहरी सारे वातावरण में गूंजती थी |  उसी समय चौपाल ख़तम होता और कौशल भैया लपक कर फटाफट मीडियम वेव से शोर्ट वेव २ का बैंड बदलते - ठक ठक - रेडियो के बाएं तरफ की घुंडी को दो बार घुमाते | उस समय बाबूजी की हिदायत दरकिनार कर दी जाती - हिदायत यह थी कि रेडियो बंद करके बेंड बदलो;  लेकिन उस समय बाबूजी घर में होते नहीं थे | हर एक गाना निकलते निकलते लोग राहत की सांस लेते - चलो सोलह से पंद्रह पंद्रह से चौदहवीं पायदान निर्विघ्न संपन्न हुई | आठवीं पायदान के आस पास , यानी साढ़े आठ बजे , सब लोग चौकन्ने हो जाते |  जैसे ही छोटी पुलिया के पास से बाबूजी के स्कूटर की  आवाज सुनाई देती , कौशल भैया उछल कर रेडियो बंद कर देते और सब अपने अपने काम में मशगुल हो जाते, मानो कुछ हुआ ही नहीं | इस फुर्तीले एक्शन में कौशल भैया फिर से नॉब को तीसरे बैंड से पहले बैंड में ऐंठना न भूलते |

गाना सुनने का माँ को भी थोड़ा शौक था , पर रसोई का काम कौन करे ? उन दिनों उनको एक गाना बहुत पसंद आता था ,"मुन्ने की अम्मा यह तो बता तेरे बचुए के अब्बा का नाम क्या है ?" लोकप्रियता के ग्राफ में यह गाना ऊपर नीचे होते रहता था |  चूँकि लोकप्रियता के पायदान उल्टे क्रम में बजाये जाते थे , माँ के लिए अच्छा होता अगर इस गाने की  लोकप्रियता कम हो जाती | तब वह बाबूजी के आने के पहले रेडियो के पास खड़े होकर यह गाना सुन सकती थी | अगर इसकी लोक्र्पियता बढती, तो उन्हें रंधनीखड़ (रसोईघर) की  खिड़की खोलनी पड़ती थी ताकि जब बाबूजी रेडियो पर पौने नौ का समाचार सुनें, वो पड़ोसियों के रेडियो से यह गाना सुन सके |

एक दिन गज़ब हो गया |

बाबूजी ने रेडियो पर हाथ रख दिया |

"क्या ? यह तो  भट्टी की तरह तप रहा है |"

चोरी पकड़ी गयी थी |

"क्या सुन रहे थे कौशल ?"

"कुछ नहीं बाबूजी , रेडियो न्यूज़ रील आ रही थी |"

"अरे हाँ आज तो बुधवार है " बाबूजी अचानक बोले ,"तुम लोगों को बिनाका गीत माला नहीं सुनना है ?"
सब सर झुकाए चुपचाप कुछ न कुछ पढ़ रहे थे - सिवाय मेरे और संजीवनी के | हम दूसरो का चेहरा देख रहे थे |

"पर यह इतना गरम क्यों हो गया है ?"

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तो रेडियो गरम इसलिए हो गया था कि उसे बीमारी ने जकड लिया था | उस दिन के बाद वह रेडियो थोडी देर चलकर ही गरम हो जाता था | इतना गरम कि माँ अगर चाहती तो सिगड़ी के बजाय गाना सनते सुनते रेडियो पर रोटी सेंक सकती थी - एक पंथ दो काज | पर अब सब डर गए थे कि कहीं अन्दर का कोई वाल्व वगैरह पिघल मत जाए |अब रेडियो दस मिनट के लिए चलता और उसे अगले दस मिनट बंद करना पड़ता | 

अगले ही हफ्ते बाबूजी को तीन चार दिनों के लिए भोपाल जाना पड़ा |

"आइडिया ... "घर के कारीगर कौशल भैया को अनूठा उपाय सूझा | रेडिओ हालाँकि पंखाखड में रखा था , पर इस सन्दर्भ में  पंखाखंड का पंखा किसी काम का नहीं था |  बैठक में हरे रंग का एक टेबल पंखा था जो एक सौ बीस अंश में घूम घूम कर हवा फेंकता था | वैसे पीछे उसकी टोंटी खींच दी जाये तो वो एक जगह खड़ा भी रहता था कौशल भैया ने रेडियो और पंखे का भरत मिलाप करा दिया | काम आसान नहीं था |
एरियल का जालीदार तार , एक पट्टी की शकल में बैठक से होकर ही जाता था | हरे रंग का वह टेबल पंखा बैठक में ही रखा था | एरियल के जालीदार तार से एक पतला काले रंग का एरियल का दूसरा तार निकलता था जो रेडियो के पीछे लगा था |  सब कुछ बैठक में स्थानांतरित करना पड़ा जहाँ पंखा लगा था |  पीछे से पंखे की घुंडी खींच कर उसे एक स्थिति में खड़ा किया गया |  तीन नंबर पर पूरी रफ्तार से पंखा रेडियो पर हवा फेंक रहा था | रेडियो के सामने घुटनों के बल बैठे कौशल भैया सुई वाली घुंडी बेधड़क घुमा रहे थे |

"बड़े मियां घर नहीं, हमें किसी का डर नहीं |"

पीली रौशनी की पट्टी में लाल सुई इधर उधर भाग रही थी पर रेडियो सीलोन मिल नहीं रहा था | रेडियो पीकिंग,रेडियो जर्मन , रेडियो पाकिस्तान - सब मिल रहे थे | सारे पड़ोसियों के रेडियो एक सुर में गाना गा रहे थे |  आखिर हमारे रेडियो ने भी उनके सुर में सुर मिला ही दिया ,"बदन पे सितारे लपेटे हुए , ऐ जाने तमन्ना किधर जा रही हो... "

सब के चेहरे पर मुस्कान आई | कौशल भैया ने पसीना पोंछा |  माँ अभी भी 'रंधनी खड़' ( रसोई घर ) में खाना बना रही थी | 

काश ये मुस्कान चिस्थायी होती !

मैं रेडियो के पिछवाडे पर खड़ा था |  पीछे के ढक्कन की झिर्रियों से मुझे जलते हुए ढेर सारे वाल्वों की झलक मिल रही थी | ऐसा लग रहा था कि संगीत के साथ वे वाल्व थिरक रहे हैं | अचानक सारे वाल्व बुझ गए और अँधेरा छा  गया | कौशल भैया ने बांयी घुंडी घुमाकर रेडियो बंद कर दिया |  सब कुछ शांत ...

उस चुप्पी का असर ऐसा ह्रदयांकारी था कि मां भी रसोई घर से निकलकर आ गयी " क्या हुआ ?"

"कुछ नहीं रेडियो गरम हो गया है | उसे ठंडा होने दो |" हरे रंग के पंखे की भी सीमिततायें थीं | 

और तभी, उसी वक्त पड़ोस के सारे रेडियो एक सुर में गा उठे ,"मुन्ने की अम्मा , यह तो बता ...."

"मुझे मुन्ने की अम्मा सुनने दो ..." मां बोली | 

"खाना बन गया ?"

"हाँ बन गया केवल दाल घोंटना बाकी है |  रेडियो चालू करो |"

"ऐसा करो , आप थोड़ी देर चहलकदमी कर के आओ " कौशल भैया झुंझलाकर बोले ,"सब घर में रेडियो बज रहा है और वो भैस वाले विनोद के घर तो भोंपू की तरह गमगमा रहा है ..."

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कांशीराम मुन्ना के घर काम करने आता था , पर हमारे घर से उसे बड़ा लगाव था | हम लोगों के घर के लिए उसका योगदान काफी बड़ा था - शायद बाहरी लोगों के सम्मिलित योगदानों से भी काफी बड़ा |

तीन चार साल पहले की बात है | एक दिन घनघोर बारिश हो रही थी | कांशीराम और रामलाल सुपेला से लौट रहे थे |  पच्चीस सड़क के पास आते आते बारिश बूंदा बांदी में बदल गयी | इन दिनों लोग जब एक घर से दूसरे घर स्थानांतरित होते थे तो अपना गेट तो साथ में लेकर जाते थे पर अपने पीछे मेहनत से बनाया बगीचा छोड़ जाते थे|  हफ्तों तक, जब तक नया मकान मालिक नहीं आ जाता , आवारा गाय और भैसों की दावत हुआ करती थी (जोप्रायः आवारा नहीं होते थे , पर उनके मालिक जान बूझ्कर खुला छोड़ देते थे ) |

तो ऐसे ही कोने वाले घर में रामलाल और कांशीराम ने देखा कि मेहंदी की झाड़ियाँ लगी हैं | अपने छत्ते में उन्होंने दो पौधे छुपाये और बाइस सड़क के घर नंबर '१० ब' में गेट के दोनों बाजु रोप दिए | आगे जो कुछ हुआ उसने बड़े बड़े वनस्पतिशास्त्रियों को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर दिया | वे पौधे बढ़ते चले गए | पौधों से उन्होंने एक पेड़ की शकल ले ली और एक दूसरे की ओर झुक गए | उनकी शाखाएं आपस में मिल गयीऔर उन्होंने गेट के ऊपर एक मेहराब सा बना दिया ,"घर नंबर १० ब में आपका स्वागत है ...."

"ये कैसे हुआ ठाकुर साहब ? आपको विश्वास है , ये मेहंदी का पेड़ है ? पर मेहंदी का तो पेड़ होता नहीं, उसकी तो केवल झाड़ियाँ होती हैं जिनकी ऊंचाई पांच फीट से ज्यादा नहीं होती.... "

पर वे तो बाकायदा बारह फीट ऊँचे पेड़ थे जिनके तने कम से कम चार इंच मोटे थे | वाकई में वे मेहंदी के पेड़ थे - सुर्ख लाल रंग की मेहंदी के !  बरसों तक आस पड़ोस की लड़कियां मेहंदी की पत्तियां तोड़कर ले जाती थी | कई कई बरसों के अन्तराल में जब तीनों बहनें एक एक करके विदा हुई तो उनके हाथ इन्ही दो पेड़ की मेहंदी से रँगे थे !
ये दूसरी बात है कि उन मेहंदी के पदों की छाया में कोई गुलाब का पौधा कभी नहीं पनप पाया |अजीब विडम्बना थी कि जितने गुलाब के पौधे रोपे , सब में कई कई महीनों में केवल एक फ़ूल लगता था |

तो उन दिनों , मुन्ना के घर से बीच बीच में कई बार हमारे घर कांशी राम आता था | एक बड़े से पत्थर में वो मिटटी रुन्धते रहता था |  हाँ, वो कुछ बना रहा था ,, शायद कोई मूर्ति !

"क्या बना रहे हो काशी राम ?"

जवाब में कांशी राम सिर्फ मुस्कुरा देता था | बनाने को तो वो काफी कुछ बना सकता था | मुन्ना के घर के आँगन में, उसके दोनों चाचा - दामू चाचा और उज्जवल के पिताजी के लिए झोपड़ी कांशीराम ने ही बनाई थी | अक्सर उनके घर वह मुख्यतः झोपड़ियों की मरम्मत करने आता था, जो कि वर्षा के दिन में अनिवार्य हो जाती थी |

घर के घेरे के उत्तर पूर्वी कोने में गन्ने का झुरमुट था | उस झुरमुट के बगल की मिटटी एकदम काली मिटटी थी जिस पर उन दिनों श्याम लाल ने जमीन खोदकर शक्कर कंद लगा दिए थे | वहीँ से काशी राम ने गीली मिटटी निकाली, पूरी मेहनत से एक एक कंकड़ साफ़ किया|   फिर सनी हुई मिटटी मैं उसने थोड़े से पुआल मिला दिए | बांस की दो खपच्ची ली और उनके सहारे मिट्टी के उस ढेर को वह आकार देने लगा |

बारिश के दिन थे | धूप  कभी आती , कभी नहीं | जिन दिनों धूप आती, वह सब से पहले गेट खोलकर आता और उस ढांचे को, जो पत्थर के एक सलेट पर रखा था , धूप मैं सूखने के लिए रख देता | शाम को फिर से पानी डालकर गीला कर देता | गोरखधंधा मुझे समझ में नहीं आ रहा था | जब उसे गीला ही करना था तो धूप में सुखा क्यों रहा था |  उसमें हलकी सी दरार दीखते ही उसके चेहरे में शिकन आ जाती थी और वह थोडी और गीली मिट्टी से उसे भरने का प्रयत्न करता |

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गुहा साहब रेडियो को ध्यान से देखते रहे |  पहले आगे से, फिर साइड से | साइड की बायीं घुंडी, जो "फाइन ट्यूनिंग" के नाम पर उल्लू बनाने का काम करती थी , को आगे से पीछे पूरा घुमाया फिर पीछे जाकर "ठक ठक" की ..... |
बाबूजी जब पौने नौ का समाचार भी निर्विघ्न पूरा नहीं सुन पाते थे तो अब उन्हें लगा कि रेडियो का इलाज अनिवार्य है | रविवार को उन दिनों घर में मेला सा लगे रहता था | वैसे भी घर में रहने वाले लोग ही कम नहीं थे, पर रविवार को माँ को कई लोगों के लिए कई कई बार कई कप चाय बनानी पड़ती थी |  लोग आते, बातें करते, विचार विमर्श करते, सलाहों का आदान प्रदान करते , ठहाका लगाकर हँसते और फिर बाल कटाने या सुपेला बाज़ार सब्जी लेने या मंदिर की ओर चले जाते |

उनमें ही एक सज्जन १७ सड़क के गुहा थे | थे तो वे भिलाई इस्पात संयंत्र के कर्मचारी ही, पर उन्हें इन कारीगरी का, खासकर बिजली के उपकरणों से खेलने का , काफी शौक था |

"ठीक है ठाकुर साहब" वे बोले ,"अभी तो खोलने के औजार मेरे पास नहीं हैं | अगर आप चाहें तो इसे हमको दे दीजिये |  हम घर में जाकर इसका अच्छे से मरम्मत करेगा  |"

बंगाली दादा ने "मरम्मत" इस लहजे से कहा था, जैसे धोबी कपडों की धुलाई करता है |  एक क्षण बाबूजी भी सोच में पड गए |

उन्हें सोचते देखकर बंगाली दादा बोले,"ठीक है एक काम करते हैं | हम संध्या काल को सामान लेकर यहीं आएगा |  देखते हैं क्या गड़बड़ है ?"

अपनी बात के मुताबिक, शाम को गुहा साहब हरे रंग के रेगजीन झोले में अपना अंजर पंजर लेकर आ गए |  उसमें पेंचकस से लेकर ढेर सारे वायर का जंजाल और काला टेप , सब कुछ था | बैठक में रोगी को बैठा दिया गया | चाय की ट्रे माँ ने मुझे थमा दी थी |  चाय देकर मैं वहीँ खड़े रहा | वे एक हाथ में टॉर्च पकड़कर, दुसरे हाथ में स्क्रू ड्राइवर से पीछे का कवर खोल रहे थे |

कवर खोलकर उन्होंने हाथ अन्दर डाला | जादूगर तो टोप से खरगोश निकालते हैं | जब गुहा साहब का हाथ बाहर आया तो ......

.....पूंछ पकड़ कर मरे हुए प्राणी को हवा में झुलाते हुए वे इतना ही बोले , "ठाकुर साहब , चूहा ..... "

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माँ के क्रोध का पारावार ना था |  चूहों ने उनकी नाक में दम कर दिया था | अब आप समझ गए होंगे कि रोज सुबह बबलू , बेबी या शशि को मोजा क्यों खोजना पड़ता था | अगर केवल मोजे इधर या उधर होते तो कोई बात नहीं थी -  अगर उन्हें चूहे चबाने की कोशिश न  करते ; जो कि प्रायः वे नहीं करते थे | गनीमत थी कि उनका स्वाद उन्हें पसंद नहीं था - नहीं तो बात और बिगड़ जाती |

कौशल भैया की आँगन की कुटिया की छत पर पर माँ उरद दाल की बड़ी बनाकर सुखाने रखती थी | अगर वो शाम को उन्हें उतारना भूल जाती तो रात में चूहों का महाभोज होता | 

रात को हलकी खटपट की आवाज़ होती और माँ बड़बडाती ,"हाँ हाँ अब्बड सत्ती जात हें रोगहा मन (काफी बदमाशी कर रहे हैं , शैतान आन दे इतवार (रविवार आने दो) फेर देखबे (फिर देखना) |"

पर अजीब बात थी कि रामलाल या श्यामलाल मामा , या व्यास, जो रविवार को सुपेला बाज़ार से पूरे परिवार के लिए सप्ताह भर की सब्जी लेने जाते , माँ की पुरजोर हिदायत के बावजूद 'मुसुआ दवाई ' (चूहे मार दवा) लाना भूल ही जाते |  सब कुछ लाते वे, आलू से लेकर चौलाई भाजी तक - कई बार अनपेक्षित चीज़ें भी , जैसे तीन फुट की मछली, या चुकंदर , जिसे खाकर सबके होंठ जामुनी हो गए थे - पर हर बार वे वही चीज भूल जाते जिसकी माँ को सख्त जरुरत होती |

जैसे ही उनकी साइकिल गेट के बाहर रूकती, मैं लपककर जाता ,"चूहा दवाई लाये ?"

वे सर पीट लेते ," में सोच ही रहा था कि क्या लेना भूल रहा हूँ, क्या भूल रहा हूँ पर देख, दीदी को मत बताना | "

और सब्जी का झोला अन्दर खाली करते करते माँ के पूछने से पहले ही वे बोलते ,"क्या बताऊँ दीदी ? वो चूहे मार दवाई वाला डोकरा (बुढऊ) सुपेला बाज़ार से ही गायब हो गया क्यों ? पता नहीं, शायद, हाँ शायद ...."

और रामलाल के इस "शायद" ने माँ के कोसने के वाक्यांश को भी बदल दिया अब वो कहती ," ... पंद्रह बीस दिन बाद .....के बाद देखना "
सालों साल माँ चूहों से परेशान रहती थी, उन्हें कोसती थी, पर साल में एक बार उन्ही दिनों उनकी भाषा बदल जाती थी |

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सेक्टर २ बाज़ार के कुछ हिस्से ऐसे थे जिनका स्वरुप बरसों नहीं बदला था | उनमे एक हिस्सा था , सब्जी बाज़ार का |  छोटे पंडित की पान की दूकान थी, बड़े पंडित की सब्जी की दूकान | बड़े पंडित की सब्जी की दूकान के बगल में महाराष्ट्रियन बहनों की सब्जी की दुकान थी, जिसमें से एक बहन शशि दीदी के स्कूल में शायद उनके आगे पीछे की कक्षा में पढ़ती थी |  पर छोटे पंडित के पान दुकान की बगल वाली दुकान कभी भी नहीं जम पायी |  हर दो तीन साल में कोई नया मालिक एक नयी दूकान लेकर वहां आ जाता था |

तो उन दिनों वहां शंकर होटल था , जहाँ बाबूजी ने बेबी को एक दर्ज़न आलू गुंडा लेने भेजा था |  उन दिनों से लेकर काफी समय तक मेरे शब्दकोष में होटल का मतलब रेस्टारेंट होता था, क्योंकि भिलाई के सारे 'होटल' एक भिलाई होटल को छोड़कर - रेस्टारेंट ही थे | यहाँ तक कि मैं भिलाई होटल को भी एक रेस्टारेंट ही समझता था | जब लोग कहते थे कि सड़क के शर्मा अंकल भिलाई होटल में मैनेजर हैं, तो मैं उन्हें रसोइयों का मुखिया समझता था और यह बात मेरी समझ से परे थी कि उनको लेने और छोड़ने जीप क्यों आती है ? आखिर क्या है उनमें कि पूरे  सड़क इक्कीस और बाइस मैं, केवल उनके ही घर फोन लगा है ?

शंकर होटल मैं, कांच के शो केस में , जैसे किसी ज्वेलरी की दूकान में गहने या कीमती खिलौनों की दूकान में खिलौने रखे होते हैं, वैसे ही मक्खियाँ भिनभिनाती जलेबी, बालूशाही , भजिया आलू गुंडा रखे थे |

"गरम बनाकर देना भैया " बेबी ने कहा | ये बाबूजी की हिदायत थी, जिसे बेबी ने सिर्फ दोहराया था |

मैंने देखा, बेबी के हाथ की मुठ्ठी कस कर बंधी है मुझे मालूम था, मुट्ठी के अन्दर पैसे हैं पर बेबी इतने जोर से जकड कर क्यों रखती है ? जब मुट्ठी खोलेगी तो मुझे मालूम था कि उनके हाथ में सिक्के का पूरा छप्पा बन जायेगा | अगर वो नोट हुए तो नोट तुड़ मुड़ जायेंगे | अगर गर्मी के दिन हुए तो नोट पसीने से भींग जायेंगे |

तभी मेरी नज़र रेक में पड़े ब्रेड के पैकेट पर पड़ी |

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ब्रेड अजेंडा में नहीं था | माँ ने पहले तो डांट का पूरा पीपा बेबी के सर उडेल दिया कि जो चीज मंगाई नहीं थी , वह लेकर क्यों आ गयी ? उसने उसे तुंरत वापिस करके आने को कहा |

"नहीं, आजकल वो वापिस नहीं लेते ,माँ  |",  माँ का रौद्र रूप देखकर बेबी कांपती आवाज़ में बोली |

"क्यों नहीं लेते ?"

"आजकल कोई भी वापिस नहीं लेता | हर दुकान के बाहर लिखा रहता है ,'बिका सामान वापिस नहीं होगा' |"

"अच्छा ? मैं देखती हूँ , कैसे वापिस नहीं होगा चल , बता कौन है दुकान वाला ", माँ पूरे लड़ने के मूड में थी |

"पंडित के बाजू वाली दूकान है |"

मैंने मिन्नत की ,"रहने दो न माँ  |"

किसी तरह माँ मान गयी | वे मेहमान, जिनके लिए बाबूजी ने आलू गुंडा मंगाया था , नाश्ता करके चले गए | फिर भी कुछ आलू गुंडा बच गए थे | माँ वैसे भी होटल का कोई सामान खाती नहीं थी |  ना ही वह बड़ों से उम्मीद करती थी कि वे होटल का सामान खाएं |  जितने आलू गुंडे बाकी थे, उसने उनके टुकड़े करके बच्चों मैं बाँट दिया | फिर ब्रेड भी बाँट दिए | आज हम दूध, बल्कि चाय रोटी की जगह चाय ब्रेड खा रहे थे |

"माँ गुस्सा क्यों हो रही थी ?" मैंने बेबी से पूछा चाय में भींगकर ब्रेड फ़ूल गया था | मैं चम्मच से खाना सीख रहा था|   अगर चम्मच मैं कौर नहीं आता, तो में उंगली से हलके धक्के से ड़ाल देता |

"ब्रेड खाना अच्छा थोडी होता है ? और ये लोग तो बासी ब्रेड बेचते हैं | "

"हम लोग भी तो रात की रोटी चाय के साथ खाते हैं | "

"अरे नहीं | ब्रेड बनाने के लिए पहले वैसे आटा सडाते हैं | "

"आटा सडाते हैं ? औ... औ ..."

"और सड़े आटे का वो ब्रेड बड़ी दुकान में ना बिके तो दो तीन दिन बाद इसे होटल में भेज देते हैं |"

"सड़े आटे का ब्रेड तीन चार दिन बाद होटल में ? औ औ ......"

"और वहां भी नहीं बिके तो सुबह जो 'ट्रिन ट्रिन ' घंटी बजाकर ब्रेड" बेचने वाला आता है न, उसके पास बेच देते है | "
"औ ... औ ... औ ..."

"मालूम है, ब्रेड के लिए आटा कैसे गूंथते हैं ? ब्रेड का आटा पांव से गूंथते हैं | बेकरी में लोग पांव से दबा दबाकर आता गूंथते हैं | "

"औ ॥ औ... औ...."अचानक मेरे पेट में जोर से मरोड़ उठी  और मैने उलटी कर दी |

उलटी करने वाला मैं अकेला नहीं था बबलू और संजीवनी ने भी उलटी कर दी |

बेबी को नए सिरे से डांट पड़ी |

इस बार डांटने वाले बाबूजी थे |

"पता नहीं, ये ब्रेड में कुछ था या आलू गुंडा में | तुम को देख कर गरम आलू गुंडा लाने कहा था न ? देखा था अपनी आँख से ? या तुम्हे उल्लू बनाकर चार सौ बीस लोगों ने ठंडा, पुराना सडा आलू गुंडा मिला दिया था ? होश था तुमको कुछ ? कोई जरुरत नहीं, शंकर होटल से आइन्दा कुछ लाने की .... "

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साल में एक बार गणेश भगवान् स्वर्ग से उतरकर धरती पर आते हैं ,  एक आम आदमी के घर में रहते  हैं और ग्यारहवें दिन अपने धाम वापिस चले जाते हैं | ये तो थी सदियों से चलने वाली व्यक्तिगत धारा | इस निजी परंपरा को करीब अस्सी नब्बे साल पहले तिलक ने सार्वजानिक स्वरुप का अमली जामा पहनाया था | आस पड़ोस के लोग मिलकर भगवान्  के लिए एक छोटा सा घर बनाते हैं , उसके सामने अपने दुःख सुख कहते हैं  , मिल जुलकर भगवान्  का मनोरंजन करते हैं और फिर ग्यारहवें दिन भगवान् को अगले साल फिर आने का न्योता देकर विदा कर देते हैं  |

मैं भाग्यशाली था कि वर्षों तक मैंने गणेश पूजा के दोनों स्वरुप काफी निकट से देखे और यह तो मेरी याददाश्त में पैठने वाला पहला साल था | अंतिम क्षणों तक मुझे बिलकुल आभास नहीं था कि काशीराम जो मूर्ति बना रहा है, वो गणेश भगवान् की है |  होता भी कैसे ?  गणेश भगवान की सूँड ही नदारद थी |

घर में बैठक में एक फोटो थी, जिसमें बाल कृष्ण के हाथ बंधे हुए थे और उनको गणेश भगवान अपने हाथों से लड्डू खिला रहे थे | यह देखकर दरवाजे पर खड़ी माँ यशोदा के हाथ से पूजा के फूल  की थाली छूट गयी थी | फिर पंखाखंड में पूजा के खाने मैं लक्ष्मी की फोटो थी, जिनके हाथ से सोने के सिक्के झड़ रहे थे | उनके बांयी ओर सरस्वती देवी और दाहिनी ओर गणेश जी बैठे थे | कहने का तात्पर्य यह कि उस समय मैं गणेश जीके स्वरुप से अनजान नहीं था |

आखिरकार एक दिन काशीराम ने मूर्ति के मुंह में एक लम्बा सा तार घुसाया , उसे मोडा , फिर आकार पसंद नहीं आया तो फिर मोडा और मिट्टी की परत चढानी शुरू की |

चतुर्थी के एक दिन पहले तीजा था | कौशल भैया सुबह से माँ से 'कोपरे' की मांग कर रहे थे '| कोपरा' , यानी कि बड़ा सा पीतल का थालनुमा बर्तन | घर का जो छोटा कोपरा था, उसमें तो माँ रोज रोटी के लिए आटा सानती थी |  इसके अलावा घर मैं एक बड़ा, पीतल का चमचमाता भारी 'कोपरा' था तीज त्यौहार के समय माँ उसका उपयोग 'अडीसा' के लिए आटा सानने के लिए करती थी | 'अडीसा' एक चावल के आटे और गुड़ से बना पकवान होता था |  अब माँ ने तीजा के लिए उसी कोपरे का उपयोग कर लिया था | शाम तक मेहमान आते रहे | मेहमान क्या - महिलाओं का त्यौहार था , इसलिए माँ की हिस्सेदारी आवश्यक थी |  इसके ऊपर माँ का निर्जला उपवास भी था |  शाम तक कौशल भैया मांग करते रहे और उनका स्वर और ज्यादा झुंझलाहट से भरते चले गया | अंततः शाम को माँ 'मिसराइन' ,'कांता',डाक्टरनी , 'कल्याणी' और गुड्डा की माँ के साथ मंदिर चले गयी तो शशि दीदी ने 'कोपरे' का बचाखुचा आटा एक गंजी (दूध का बर्तन) मैं डाला और कोपरे को नारियल के बूच से रगड़ रगड़ कर धोया | थोडी ही देर में कोपरा चमचमा उठा | पर कौशल भैया कर क्या रहे थे ?

शुरुवात उन्होंने होली के रंग से की | थोडा बहुत लगाया होगा, बात जमी नहीं | उनके पास में जो पैंट के डिब्बे थे, उनमें काले , सफ़ेद और पीले ही रंग थे | वो भला क्या काम आते ? अरे, जूते यानी पदत्राण भी तो सुनहरे होने चाहिए | उन्होंने चूने के रंग टटोले, बात कुछ जमी नहीं हारकर उन्होंने अपने वाटर कलर का डिब्बा उठाया | काम काफी मेहनत का था ब्रश पतले थे और थोडा रंग लगाते ही सूख जाते | पर कौशल भैया लगे रहे |

थोड़ी ही देर में कांशीराम के मिट्टी की उस  मूर्ति में गणेश भगवान् की छवि स्पष्ट दिखने लगी | 

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जब से मार्केट के गणेश पूजा के व्यवस्थापक सबके घर से एक एक रूपये चंदा मांगकर गए थे, सारे बच्चे उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे | आखिरकार वह दिन आ ही गया |

रोज की तरह हम लोग मैदान में खेल रहे थे | एक कोने में इक्कीस सड़क का राजू , यानी 'लाल टमाटर' निशु का भाई पतंग उड़ा रहा था | निशु का शरारती लड़कों ने जीना हराम कर दिया था , क्योंकि वह एकदम गोरी चिट्टी थी, लेकिन थी रुई के बोरे की तरह फूली फूली | जैसे ही वह घर से निकलती, शरारती दुल्लू ,संजू या मंजीत किसी कोने से आवाज निकालते,"लाल टमाटर" और फिर सियार की 'हुआँ हुआँ' की तरह सारे शैतान लड़के शुरू हो जाते,"लाल टमाटर, लाल टमाटर " | और तो और, अपेक्षाकृत शांत गोगे ,टीटू और रीटू भी शामिल हो जाते,"लाल टमाटर लाल ...टमाटर..." | राजू की माँ ने एक दिन लड़कों को प्यार से समझाया , दूसरे  दिन धमकाया , तीसरे दिन पीटा , पर कुछ असर नहीं हुआ | इसलिए राजू अधिकतर और लड़कों से थोड़ा कटा रहता था |

शंकर हाथ छोड़कर साइकिल चलाते हुए आया और राजू के पास आकर , साइकिल घुमाकर बोला "अबे, मार्केट का गणेश आ गया है |" 

दुल्लू राजू के पास ही लट्टू चला रहा था "मोट्टे टी टी पोट्टे "वह हिकारत से बोला ," इतनी जल्दी कैसे आ सकता है ?"गणेश का नाम सुनते ही हम बच्चों के कान खड़े हो गए थे |

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सब्जी बाज़ार के पीछे , सच कहूँ तो कल तक तो धोबी के कपडे सूखते थे | इसका मतलब सत्यवती के पिताजी को कपडे सुखाने के लिए कोई और जगह खोजनी पड़ेगी | अब वह जगह जो कल तक टूटी फूटी ईंटों का मंच थी , वह रंगीन परदों, लाल कालीन ,और टेंट से ढँक गयी थी | मंच के ठीक बगल में गणेश जी के लिए लकडी का सिंहासन बनाया गया था | उस पर गणेश जी विराजमान भी थे | उनके सिर के पीछे एक चक्र निरंतर घूम रहा था |
सब कुछ ठीक था, केवल एक बात खल रही थी |

गणेश जी का मुंह ढंका हुआ था | एक पीले रंग का कपडा गणेश जी के मुंह पर बंधा था |

"क्यों बंधा है कपडा ?"

"क्योंकि अभी मुहूर्त नहीं निकला है " चक्की वाले ने जवाब दिया |

- देखो, सडा सामान बेचने वाला ,शंकर होटल वाला , कैसी बेशर्मी से बूंदी की एक पूरी परात प्रसाद के रूप में बांटने के लिए खडा है | मेरा मन घृणा से भर गया | हाथ में पिचके हुए एल्यूमिनियम का पात्र लिए एक कोने मैं भिखारी भी ललचाई नज़र से देख रहे थे |

पास से गुजरते हुए बबन ने पूछ ही लिया ,"प्रसाद कब मिलेगा ?"

"अभी मुहूर्त नहीं निकला है |"

कुछ लोग रंग बिरंगी पोशाक पहने कुर्सी पर बैठे थे | उन्हें भी मुहूर्त निकलने का इंतज़ार था , ताकि वे माइक पर आरती गा सकें | अरे हाँ, माइक के बारे में बताना ही भूल गया |  दो बड़े बड़े माइक मंच के दोनों कोनों पर लगे थे उनसे तार निकल कर चार बड़े बड़े भोंपुओं पर लगे थे | सिन्धी आटा चक्की वाला बारी बारी से दोनों माइक पर गया |  मुझे उम्मीद थी कि वह कहेगा कि  मुहूर्त कब और कैसे निकलेगा | उसके बजाय उसने कहना शुरू किया ,"हेल्लो वन टू थ्री , हेलो माइक टेस्टिंग वन टू थ्री हेलो वन टू थ्री "

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बाज़ार वालों की बेवकूफी से दो पंडित आपस में लड़ पड़े |

उस समय सेक्टर २ के मंदिर के प्रांगण में दो ही मंदिर थे - एक दुर्गा माँ का और एक हनुमान जी का | हनुमान जी की पुरानी मूर्ति एक बरगद के पेड़ की जड़ से जुडी हुई थी | उनके दर्शन के लिए तीन चार सीढ़ी उतरकर नीचे जाना पड़ता था | उस मंदिर का पुजारी अपेक्षकृत बुजुर्ग था | वैसे वे काफी शांत स्वभाव के थे और शाम के आठ साढ़े  आठ बजे, जब लोगों का मंदिर आना जाना कम हो जाता था , तो शंख बजाय करते थे |

दुर्गा मंदिर का पुजारी युवा तो था, पर उन्हें कम सुनाई देता था | साथ ही वे कुछ सनकी और गुस्सालू प्रवृत्ति के भी थे | दोनों में ठंडी तनातनी की वजह शायद ये थी कि एक तीसरा मंदिर , जो कि दुर्गा मंदिर के ठीक सामने तेजी से बन रहा था , जो शायद शिव जी का मंदिर था - उसकी पुरोहिताई दोनों करना चाहते थे |

परंपरागत ढंग से पूजन के लिए बुजुर्ग होने के नाते हनुमान मंदिर के पुजारी को बुलाने अनिल डेरी वाला लम्ब्रेटा लेकर गया |  वे मंदिर में मिले नहीं | शायद किसी रिश्तेदार से मिलने सुपेला निकल गए थे | एक जिम्मेदार सिपाही की तरह अनिल डेरी वाले युवक ने हार नहीं मानी और वे सुपेला जा पहुंचे |

इसी बीच देर होती देखकर "सिंह टेलर" वाले सरदारजी ने सलाह दी कि बटुक, यानी कि दुर्गा मंदिर के पुजारी को  ही बुला लिया जाए | संयोग ये कि दोनों पंडित एक ही साथ , एक ही समय गणेश जी के मंडप पर पूजा कराने जा पहुंचे |

मार्केट वाले आयोजक मुश्किल में पड़ गए |  पूजा के लिए दक्षिणा की राशि कोई छोटी मोटी रकम होती तो थी नहीं | अब जब कि एक के बदले दो-दो पंडित एक साथ आ गए थे , दक्षिणा की राशि बँट जाने का सीधा-सीधा अंदेशा था |

हिन्दुस्तान में पंडित का धंधा तब भी कोई लाभप्रद पेशा नहीं था |  केवल सम्मान ही जुड़ा था उसमें | सच्ची बात तो यह थी कि उसे पेशा कहना उन्हें काफी अपमानजनक लगता था |  किन्तु आमदनी नगण्य थी |जो कुछ मिलता, ऐसे ही पूजा अर्चना के समय ही दक्षिणा के बतौर मिलता |तो गणेश जी का नकाब उतारने की होड़ में दो पंडित आपस में लड़ पड़े - पूरी सुसंस्कृत शब्दावली के साथ |

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घर में एक लकडी की बहुत ही बड़ी मेज थी | इतनी बड़ी कि कौशल भैया भी उसे अकेले नहीं उठा सकते थे | वह बैठक के एक कोने में रखी थी | उसे किसी तरह आडा करके परछी में लाया गया | परछी के करीब बीचों बीच एक बड़ी सी बल्ली थी , जिसमें लोहे की छड़ के चार हूक निकले थे | हम उसमें लकडी का झुला फंसाकर झूल सकते थे |  शायद जब हम छोटे रहे होंगे तो माँ हमें उस झूले में रखकर काम करती होगी | अभी भी कभी कभार, खासकर छुट्टियों के दिन किसी का मूड आता तो झूला लग जाता था | उसमें हम बैठकर झूलने का आनंद उठाते | पर प्रतिदिन यह हो पाना संभव नहीं था |  कौन उसे रोज लगाये और उतारे क्योंकि, रात को वह जगह खाली ही करनी पड़ती थी ताकि दो तीन लोग चटाई या दरी बिछाकर सो सकें | उसके पीछे , दीवार से सटाकर वह मेज लगाई गयी थी | उसके ऊपर एक लकडी का छोटा स्टूल रखा गया था, जिसके चार पांव में से एक पांव थोडा सा, करीब आधा इंच छोटा था और वो हमेश डगमग डगमग किया करता था | गणेश जी का सिंहासन ना डोले, इसलिए उसके अपंग पांव के नीचे कागज़ को मोड़ तोड़कर एक परत लगाई गयी थी | वो कोपरा जिसे शशि दीदी ने रगड़ रगड़ कर चमकाया था ,, सिंहासन के सामने रखे थे और उसमें फव्वारा चल रहा था |  घर में एक छोटा फव्वारा था, जिससे नारंगी रंग की एक रबर की पाइप जुडी थी | ध्यान से देखने पर पता चलता कि वह पाइप मेज के नीच विलुप्त हो गयी है ,जहाँ उसका दूसरा छोर एक पानी के बाल्टी में डूबा था | मेज में टेबल क्लॉथ की जगह जमीन तक झूलती हुई एक चादर रखी थी, जिसने सब कुछ ढँक रखा था |

बैठक के तीन खानों वाले आले में ढेर सारे खिलौने थे } उसमें जो खुशकिस्मत थे , उन सब को गणेश जी के दरबार की शोभा बढाने के लिए प्रस्तुत किया गया | स्प्रिंग के सहारे सर हिलाने वाले लकडी के खिलौने, एक नर और एक नारी, चीनी मिट्टी के खिलौने, यानि हाथी शेर और बदक, जो कुछ ही दिनों पूर्व आये थे ; प्लास्टिक के यूकेलिप्टस और गुलाब के फुल जो पीतल के नक्काशीदार फूलदान में थे; मिट्टी के बने अनार,सीताफल और आम - जो कि बैठक के उपर में लगी खूंटी से टंगे रहते थे | एक खिलौने का सफ़ेद रंग का पंखा भी था जो बैटरी की छोटी मोटर से चलता था | हालाँकि उसकी धुरी ढीली हो गयी थी और इसलिए वह मोटर के अक्ष में फिर नहीं हो पा रहा था कौशल भैया ने काफी कोशिश की, पर वह फिट हो ही नहीं पाया | अगर वह चलता तो शायद शोभा में चार चाँद जोड़ देता |
शशि ने क्रेप और झिल्ली पेपर से झालर बनाये और उन्हें गणेश जी के आसन के चारों ओर बने मंडल में सावधानी से चिपका दिया | बाबूजी के डर के कारण बापू के तीन बंदरों को हाथ लगाने की जुर्रत किसी ने नहीं की |

पंखाखंड में दीवार से लग कर कुल चार खाने थे | सबसे ऊपर के खाने में तीन बैंड का रेडियो था | बीच के खाने में रामायण, भगवान् की तस्वीरें , संगमरमर का एक अगरबत्ती का स्टैंड तो था , एक सफ़ेद रंग का शंख भी रखा था |
उस दिन तक मुझे मालूम नहीं था कि वह शंख बजता भी है या नहीं |

तो बड़ी मेज ऊपर स्टूल, फिर एक पीढा रखकर गणेश भगवान् का मंच बनाया गया था | उसके ऊपर पहले लाल रंग का कपडा बिछाया गया | सबसे बड़ी समस्या थी, वह पर्दा | हाँ, वह पर्दा बैठक को घर के बाकी हिस्सों से अलग करता था | ज़मीन से करीब एक फ़ुट ऊपर लटका पर्दा माँ की लक्ष्मण रेखा था ..... आज उस लक्ष्मण रेखा ने मुझे धर्मसंकट में ड़ाल दिया था .....

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"टुल्लू तेरे घर में गणेश बैठा रहे हैं न ?" बाज़ार से आते समय मुन्ना ने मुझसे पूछा |

सब बच्चे मेरी ओर हैरत से देखने लगे | मैं हाँ बोलूं या न ? अगर ना कहूँ, तो ये झूठ होगा |अगर हाँ कहूँ तो मुझे मालूम था कि उनकी अगली मांग क्या होगी ? ऐसी मांग जो मेरे लिए पूरा कर पाना टेढी खीर होता |

मुझे चुप देख कर उसने कहा ,"मुझे कांशी राम ने बताया है |"

"मुझे नहीं मालूम " मैंने मरे स्वर में जवाब दिया |

""चल , चल देखते हैं तेरे घर का गणेश " बबन उछला |

"हाँ, हाँ चल चल " शशांक और छोटा भी उत्साहित थे |

"अभी नहीं " मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें रोका |

"क्यों नहीं ?"

"अभी मेरे घर के गणेश के मुंह में कपडा बंधा है "मुझे इससे बेहतर जवाब ही नहीं सूझा |

"कब हटायेंगे कपडा ?"

"शायद शाम को अभी मेरे घर के गणेश का मुहूर्त नहीं निकला है "

.....और शाम को मैं खेलने भी नहीं गया |  इस डर से कि कोई बच्चा गणेश देखने की जिद्द ना पकड़ ले | ओह..., माँ की लक्ष्मण रेखा ....
घर में बाहरी बच्चों के आने के लिए माँ के कुछ नियम थे | पहला - जूते चप्पल बरामदे में उतर कर ,दरवाजे के पास रखे पायदान में पांव पोछकर अन्दर घुसो | दूसरा, किसी हालत में , किसी भी हालत में लक्ष्मण रेखा यानी वो पांच फुट लम्बा, अढ़ाई फुट चौड़ा पर्दा लांघने की इजाज़त नहीं है | 

लक्ष्मण रेखा लांघने की अनुमति  बड़ों को भी नहीं थी |  हाँ, कभी बाबूजी के कोई दोस्त सपत्नीक पधारते तो जरुर माँ उस महिला को अन्दर गप मारने बुला लेती |

...अब क्या होगा ? गणेश भगवान् तो परछी में थे ....

लक्ष्मण रेखा के उस पार ...

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शंख बजाना आता है आपको ?

यदि नहीं, तो आपको लगता होगा, इसमें रखा ही क्या है ? मुंह से लगाओ, फूंक मारो , अपने आप चींख मारेगा |

मैंने भी वही सोचा था |  शंख को मुंह से लगाया , फूंक मारी | ऊपर से श्याम लाल मामा और हवा भर रहे थे ," हाँ हाँ , बस ऐसे ही लगे रहो | हाँ हाँ, अभी थोडा सा बजा ..."

मैंने मुंह हटाकर पूछ लिया ,"थोडा सा बजा था ?"

मुझे पूरा अंदेशा था कि वह हरगिज नहीं बजा है |  हवा ऊपर से घुसकर नीचे से पूरी पूरी निकल रही थी | मैंने फिर से कोशिश की |
अब बबलू से रहा नहीं गया | उसने शंख छीन लिया ,"तुझसे नहीं बजने वाला |अब मैं कोशिश करता हूँ |"

श्यामलाल ने अब बबलू को वही तरीका सिखाया, जो थोडी देर पहले मुझे सिखाया था | बबलू ने भी एक बार कोशिश की | हवा निकल गयी | दूसरी बार कोशिश की , फिर हवा निकली |

मैंने झपट्टा मारकर शंख छिनने की कोशिश की, मगर बबलू ने मुझे परे धकेल दिया |

तीसरी बार बबलू ने फिर कोशिश की .....

... इस बार शंख बज उठा ......

.......इतनी जोर से बजा शंख कि उसकी आवाज़ से पूरी २२ सड़क गूंज उठी |

.......देखते ही देखते घर से बच्चे निकालने लगे और उनके पाँव खुद-ब-खुद घर नंबर १० ब की ओर बढ़ने लगे .......

....... माँ भी पिघल गयी और लक्ष्मण रेखा का तेज मद्धिम पड़ गया ......

ढेर सारे बच्चे परछी में इकठ्ठा होने लगे "इंगलिश मीडियम चाय गरम " वाली किकी, छोटा, रमेश, मुन्ना , सोगा, मगिन्द्र, सुरेश, मोटा गिरीश , दीपक सड़क के दूसरे छोर में रहने वाला अनिल....इक्कीस सड़क के अंकु और टिंकू- सब के सब परछी में भर गए |

घर में कौशल, शशि और बेबी को कभी तीन कप ईनाम में मिले थे |  हाँ, उन दिनों ईनाम में कांसे और ताम्बे के कप मिलते थे | उनके दो ढक्कनों से पूजा के लिए अच्छी खासी घंटी बन गयी | घर में जितने थाली और चम्मच थे, किसी ना किसी बच्चे के हाथ में थे |

"गणेश भगवान् की ......"....और जयघोष से सारी सड़क गूंज उठी | जब आरती शुरू हुई तो मुझे ज्ञात हुआ कि आरती का एक भी शब्द मुझे आता नहीं था ...

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....और एक दिन फिर मेरी वजह से बेबी को बेभाव की डांट पड़ गयी |

फिर माँ ने उसे सामान लेने भेजा , फिर से मैं उनके साथ लटक गया | फिर से गलती मेरी थी और डांट उनको पड़ गयी |

वैसे तो चंद्राकर किराना स्टोर से घर में महीने का सामान आता था , जिसका बाबूजी चंद्राकर के दुकान में जाकर भुगतान कर देते थे | फिर भी कई बार कुछ न कुछ महीने के बीच में ख़तम हो जाता था | कभी चाय पत्ती तो कभी फल्ली दाना कभी नमक तो कभी जीरा,  कभी हल्दी तो कभी खड़ी मिर्च | बाबूजी माँ से हमेशा ठीक अंदाज से लिस्ट बनाने कहते थे , शशि दीदी हमेशा मदद करती थी , पर जहाँ लोगों का आना जाना , रहनाअनिश्चित हो , वहां हिसाब रखना भी मुश्किल था |  और फिर सब्जी तो हमेशा ताजी ही लेनी पड़ती थी भले | सुपेला बाज़ार से हफ्ते की सब्जी कोई ना कोई ले आता था फिर भी कभी लहसुन चाहिए होता था तो कभी अदरक |

आज फिर बेबी ने हाथ में कसकर मुठ्ठी बांधी थी | को-ओपरेटिव की दुकान से हमने नमक का पैकेट ख़रीदा |

"चलो, थोडा गणेश देखकर आयें ?" मैंने पूछा |

"चलो , देखते हैं | क्या होने वाला है आज कल में ?"

पहले हम लोगों ने गणेश भगवान को प्रणाम किया | वाह , क्या भव्य प्रतिमा थी |  सर के पीछे का चक्र घूमे जा रहा था | लगता है, पंखा लगा रखा था और उनकी सवारी चूहे को तो देखो - क्या मोटा है - बिलकुल गणेश जी जैसे और कितने प्यार से लड्डू खाए जा रहा है | पर गणेश जी का एक दांत टूट कैसे गया ? किसी को पता भी नहीं चला ? बाप रे ... मैं बता दूँ ? क्या फायदा - बोलेंगे - 'हमने पहले ही देख लिया है बालक...' अभी भी बेबी के एक हाथ की मुट्ठी कस कर बँधी  थी |

मैंने अपने मन की बात कह दी |

"आप कस कर मुट्ठी क्यों बंधे रहते हैं ? आप ठीक से प्रणाम भी नहीं कर पा रहे हैं |"

"मेरे हाथ में पैसा है |"

"मुझे मालूम है |", मैं बोला |

"तो कहाँ रखूं ? फ्रॉक में जेब तो होती नहीं | "

" मेरी हाफ पेंट में तो जेब है |" मैंने कहा |

उनको बात जंच गयी | उन्होंने मेरी जेब में बचा हुआ दस पैसे का सिक्का ड़ाल दिया |

अभी दिन के समय गणेश जी के मंडप में कुछ नहीं हो रहा था | फिर भी एक गंजा आदमी मंच के पास रजिस्टर लेकर बैठा था |

तभी वहां निर्मला दिख गयी - बंछोर साहब की लड़की - बेबी की पक्की सहेली | 

"निर्मला " बेबी ने वहीँ से आवाज़ दी |

निर्मला से ही पता चला कि परसों फेंसी ड्रेस है |  निर्मला वहां फेंसी ड्रेस के लिए नाम लिखाने आई है |

वह आदमी , जो मंच के पास बैठा है, वह फेंसी ड्रेस के लिए नाम लिख रहा है |

" तू क्या बनेगी ?" बेबी ने उससे पूछा |

"मैं तो छत्तीसगढी बाई बनूँगी | आसान है |"

निर्मला तो चले गयी | बेबी वहीँ खड़ी सोच में पड़ गयी |  फिर वह उस आदमी के पास गयी |

"आप तो ठाकुर साहब की बेटी हैं न " उस आदमी ने बेबी को पहचान लिया ," क्या नाम है आपका ?"

"सुधा ठाकुर" सर हिलाकर उस आदमी ने बेबी का नाम दर्ज कर लिया |

"अच्छा, क्या बनेंगी आप ?"
बेबी थोडी देर तक सोच में पड़े रही | फिर बोली ,"अंकल , मेरा नाम काट दो |"

"कोई बात नहीं वैसे हम बच्चों का भी आइटम रख रहे हैं | ये आपका भाई कुछ करना चाहेगा ?"

बेबी बोली,"हाँ | जरुर इसका नाम लिख दो "

"क्या नाम है इसका ?"बेबी कुछ कहती, इससे पहले मैं बोला ," मेरा घर का नाम टुल्लू .... "

बेबी बात काट कर बोली," विजय - विजय सिंह ठाकुर है इसके स्कूल का नाम |"

मैने सफाई दी ,"वैसे मैं अगले साल स्कूल जाऊंगा |"

रास्ते में मैंने बेबी से कहा," आप सत्यवती से पूछ के देखो | आजकल उनके पिताजी धोने के बाद कपडे कहाँ सुखा रहे है | कपडे सुखाने की जगह तो गणेश जी बैठे हैं |"
"ठीक है स्कूल में पूछ लूँगी | वैसे दस दिन की ही तो बात है |"

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घर में माँ बिफर पड़ी थी |

"बायीं जेब देख तो ... अब दाई जेब देख ..."

मुझे बांया दांया कुछ पता नहीं था | बेबी जब ऐसा कुछ कहती तो जो जेब मैं टटोल रहा होता, उसकी उलटी जेब देखता |

ऐसा मैंने तीन बार किया , पर पैसा होता तो मिलता | मैंने कमीज के पाकेट में हाथ डालकर देखा | पैसा वहां भी नहीं था |

बेबस बेबी रुआंसी हो गयी |

"ये टुरी (छोकरी) ...." माँ का गुस्सा बेबी पर बरस रहा था | इस आग के बीच में मैं घर से निकल पड़ा |

पैसा कहाँ गिर गया ?

मैं अँधेरे में घास पर जमीन पर देखते हुए चींटी की चाल से आगे बढा | बीच बीच मैं ठिठक जाता | चलते चलते मैं छोटी पुलिया के पास पहुँच गया |

मुझे पीछे किसी के क़दमों आहट सुनाई दी | पीछे बेबी खड़ी थी |

"कहाँ जा रहे हो ?" बेबी ने पूछा |

"आपको डांट पड़ी ना पैसा गिर गया न |"

" तो क्या करेंगे ? "

" मैं खोज रहा हूँ शायद रास्ते में कहीं गिर गया होगा |  मिल गया तो माँ का गुस्सा शांत हो जायेगा |"

"अब तो अँधेरा हो गया | कहीं दिखाई भी नहीं देगा | कल सुबह सुबह उठ के खोजें ? रात को तो किसी को दिखाई नहीं देगा | कोई नहीं उठाएगा |"

मुझे बात थोडी सी जँची ,"ठीक है | आप मुझे बहुत सुबह उठा देना | आपके स्कूल जाने के बहुत पहले |"

"ठीक अभी चल मेरे साथ |"

मैं बेबी का हाथ थामे चल पड़ा ...

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वह महिला हमें अन्दर ले गयी |

अन्दर एक कोने मैं केवल एक टेबल लैंप जल रहा था |

"ये मेरा भाई है बहनजी " बेबी ने कहा |

"कितने साल का है " महिला ने काले फ्रेम के मोटे चश्मे के पीछे से मुझे घूरते हुए कहा |

" साढ़े पांच या छः "

"ठीक है " महिला ने कहा फिर,एक मोटी सी किताब में खो गयी | अचानक बोली ,"बोलो बच्चे - ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा - बोलो बोलो |"

"ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा " मैंने कहा |

"पतला थाल बनाता है - बोलो |" 

"पतला थाल बनाता है |  " मैंने दोहराया |

"जिस थाली में खाना मेरा - शाम सबेरे आता है |"

"जिस थाली में खाना मेरा ... शाम सबेरे आता है | "

"शाबास - अब पूरा बोलो "

"ठक ठक ठक ठक करे ठठेरा , पतला थाल बनाता है |"

"हाँ आगे ?"

"जिस थाली में खाना मेरा शाम सबेरे आता है |"

"शाब्बास " फिर वो बेबी को देखकर बोली ,"बस हो गया  |"

"बहनजी , आप लिखकर दे देंगे ?"

"जरुरत नहीं है इसे याद हो गया |",  फिर सोचकर बोली,"वैसे तुम चाहो तो लिख लो |"

उन्होंने एक कागज़ का पुर्जा और पेन दिया | उस लम्बे से पुर्जे में बेबी ने चारों लाइने लिख ली और अपनी मुट्ठी में भींज लिया - कस के ......

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तो जब भगवान् एक मेहमान बनकर घर में आये थे तो जाहिर है, उनके लिए जगह बनानी ही थी | गणेश भगवान्  परछी पर विराजमान हुए जहाँ हम लोग बैठकर खाना खाते थे  |  और रात को व्यास और लक्ष्मी भैया , और कभी शकुन आती थी तो शकुन - चटाई बिछाकर सोते थे | या तो गाँव से आने वाले मेहमान या श्यामलाल या रामलाल मामा  दरी बिछाकर सोते थे | तो हुआ ये कि रामलाल और श्यामलाल घर के बाहर सोने लगे | माँ को शकुन का परछी में सोना वैसे भी पसंद नहीं था | उसके लिए पंखाखड में जगह बनाई गयी , जहाँ ज्यादातर लड़कियां ही थी | मुझे मचोली समेत किक मारकर बाहर किया गया | मतलब मेरी खाट , यानी कि मचोली खड़ी हो गयी , और बिस्तर गोल कर दिया गया - अगले ग्यारह दिनों के लिए मैं बैठक में बाबूजी और बबलू के साथ सोने लगा | कौशल भैया तो आँगन में ही जमे रहते थे | बैठक में जो जगह बाकी थी - वहां कोई एक मेहमान सो जाते थे |  गणपति के दिनों में कभी हरप्रसाद जरुर एकाध दिन की छुट्टी लेकर आते थे | बाकी सब खेती किसानी में लग जाते थे , क्योंकि वह बारिश का महीना था | अगर और कोई मेहमान आता तो माँ उसे चाय नाश्ता देकर , फिर टेंपो का किराया देकर मुझे हिदायत देती कि मैं उसे मस्जिद तक छोड़ आऊं और बता दूँ कि टेंपो कहाँ से पकड़ते हैं | ताकि वे टेंपो पकड़ कर बत्तीस बंगला जा सकें जहाँ माँ के "बलदाऊ काका " रहा करते थे |

रात को सब कुछ ठीक चलता, पर जब जोर की बारिश आती तो रामलाल और श्यामलाल को भागकर , बिस्तर गोल करके, खाट लादकर बरामदे में आना पड़ता |

पर किसी को गणपति से कोई शिकायत नहीं थी | ऐसा लगता था कि भगवान् घर में खुशियाँ लेकर आये हैं | सुबह जरुर स्कूल जाने के लिए भागम भाग मची रहती थी | इसलिए सुबह की आरती में प्रायः कौशल भैया अकेले ही रहते थे |  मेरी उपस्थिति नगण्य थी , क्योंकि मुझे तो आरती आती ही नहीं थी | बाबूजी , जो जल्दी जल्दी नहाने के बाद पंखाखड में रखे भगवान् की आरती के लिए अगर बत्ती घुमाते थे , एक अगर बत्ती गणेश भगवान् के आगे भी जला देते थे और थाली में कुछ सिक्के डाल देते थे | जब सुबह गणेश भगवान् की आरती के समय कौशल भैया "गणेश भगवान् की" का नारा लगाते थे तो "जय" कहने वाले केवल मैं और कौशल भैया ही होते थे |

क्योंकि संजीवनी तब तक सोते रहती थी |

और जब कौशल भैया आरती गाते थे तो मैं थाली से "टन - टन" बजाने के साथ साथ "औं औं" की आवाज में सुर से सुर मिलाने के , और कुछ नहीं करता था | इस चक्कर में मैने अपने स्टील की खाने की थाली को चम्मच से इतने जोर से बजाया कि वह बीच से पिचक सी गयी | यह बात अलग थी कि इससे मुझे ही फायदा हुआ | अब खाने के वक्त रोटी का इन्तजार करते समय मैं थाली गोल गोल घुमा सकता था - एक चक्र की तरह | लेकिन शाम का माहौल कुछ और ही होता | अब सड़क में करीब सबको पता चल गया था कि हमारे घर गणेश बैठा है | खेलने के बाद लोग हाथ पांव धोकर नियम से हमारे घर आ जाते | जब दोपहर को केले वाला ठेला घर के बाहर से गुजरता तो माँ रोज एक दर्जन केला ले लेती , ताकि उसके गोल गोल टुकड़े काट कर शाम को प्रसाद बनाया जा सके |

पूजा के पहले तथा बाद बच्चे बातें करते रहते और हंसते रहते | जो बड़े और संजीदा बच्चे थे , वे टेबल पर रखी "पराग" या "चंदामामा" पढ़ते | कई कई बार ऐसा भी होता कि कई कई लोग मिलकर एक ही पत्रिका पढ़ते | कोई एक पेज आगे , कोई एक पेज पीछे कई बार कोई 'पराग' की 'छोटू लम्बू ' या 'बुद्धुराम' जैसे कार्टून ऊँची आवाज में पढता तथा सब लोग देखते रहते और हंसते रहते |

ऐसा तब तक चलता , जब एक एक बच्चों का नाम ले लेकर उनकी माँ या बड़े भाई बहन घर से नहीं पुकारते  | कई बार तो बच्चे तब भी जाने को तैयार नहीं होते |  तब उन्हें खुद चलकर हमारे घर आना पड़ता | बच्चे तब भी नहीं हिलते तो उन्हें "दरवाजा बंद होने " की धमकी दी जाती | माँ को यह अच्छा लगता तथा  गणेश भगवान् मुस्कुराते रहते |

लेकिन एक बात मुझे खल रही थी .......मुझे आरती नहीं आती .... नहीं आती ... नहीं आती ....

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 (क्रमशः)